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वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ को पौराणिक या काल्पनिक कथानायक बनाने की प्रवृत्ति रही है। कुछ में दैवी शक्ति का आरोप करके पौराणिक बना दिया गया है और कुछ में काल्पनिक रोमांस का आरोप करके निजन्धरी कथाओं (लीजेण्ड) का आश्रय बना दिया गया है।' 'वसुदेवहिण्डी' की राम और कृष्ण की कथा में चित्रित राम और कृष्ण दैवी शक्ति से सम्पन्न होते हुए भी उनका जीवन काल्पनिक रोमांस से परिपूर्ण है। फलतः, 'वसुदेवहिण्डी' की कथा इतिहास न होकर गद्यकाव्य की मधुरिमा से मोहित कर लेनेवाली महाकथा बन गई है।
डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय के अनुसार, 'लीजेण्ड' या निजन्धरियाँ लोककथाओं के वह प्रकार हैं, जिनके कथानक में (ऐतिहासिक) तथ्य तथा घटना-परम्परा दोनों का समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार, 'इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका' में 'लीजेण्ड' के बारे में बताया गया है कि ऐतिहासिक लोककथा को विकृत इतिहास कहा जा सकता है। इसमें ऐतिहासिक तथ्य का मुख्यांश रहता है, जो धर्मगाथाओं अथवा तृतीय श्रेणी की कथाओं से समर्थित अथवा विकृत होता रहता है।
'दि स्टैण्डर्ड डिक्शनरी ऑव फोकलोर' (खण्ड २, पृ. ६१२) ने 'लीजेण्ड' को उपाख्यान की संज्ञा दी है और बताया है कि उपाख्यान किसी सन्त अथवा बलिदानी की जीवनी का विशिष्ट कथांश माना जाता था, जिसे धार्मिक अनुष्ठानों या प्रीतिपूर्ण उत्सवों के सुखद क्षणों में पढ़ा जाता था। अब इस शब्द का प्रयोग किसी प्राचीन महापुरुष, स्थान अथवा घटना से सम्बद्ध कथा के लिए किया जाता है, जिसमें कल्पित एवं परम्परागत तत्त्वों का सनिवेश रहता है। इसलिए, धर्मगाथा तथा पौराणिक कथा या उपाख्यान की भेदक रेखा अस्पष्ट ही है। धर्मगाथा में प्रधान पात्र देवी-देवता रहते हैं तथा इसका मुख्य उद्देश्य किसी धार्मिक तत्त्व का स्पष्टीकरण माना गया है। उपाख्यान में सचाई रहती है, जबकि धर्मगाथा की सत्यनिष्ठा देवी-देवताओं या ऋषि-महर्षियों या साधु-सन्तों के प्रति श्रद्धालु श्रोता के विश्वासों पर आधृत रहती है। 'वसुदेवहिण्डी' की पौराणिक कथाओं का विवेचन इसी परिप्रेक्ष्य में अपेक्षित है।
(क) कृष्णकथा ब्राह्मण एवं श्रमण दोनों परम्पराओं में कृष्णकथा के चित्रण के प्रति समान आग्रह है। ब्राह्मण-परम्परा का सम्पूर्ण वैष्णव-साहित्य राम और कृष्ण की कथा का ही पर्याय-प्रतीक बन गया है, जो सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से अपना पार्यन्तिक महत्त्व रखता है। किन्तु श्रमण-परम्परा के राम और कृष्ण लोकसंग्रही व्यक्तित्व से उद्दीप्त हैं। वैष्णवों की तरह श्रमणों की कृष्णभक्तिपरम्परा में श्रीकृष्ण की केवल प्रेममयी मूर्ति को आधार बनाकर प्रेमतत्त्व की सविस्तर व्यंजना करने की अपेक्षा उनके लोकपक्ष को उद्भावित किया गया है। श्रमणों के कृष्ण प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं की भुजाओं से वलयित गोकुल के श्रीकृष्ण नहीं हैं, अपितु बड़े-बड़े भूपालों और सामन्तों के बीच रहकर लोकमर्यादा और विधि-व्यवस्था की रक्षा करनेवाले दुष्टदलनकारी द्वारकावासी कृष्ण हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, 'लोकसंग्रह की भावना से विमुख, अपने रंग में मस्त रहनेवालेजीव, वैष्णव भक्तों ने जिस कृष्ण के रूप को लेकर काव्य-रचना की है, वह हास-विलास के १. 'हिन्दी-साहित्य का आदिकाल' (पूर्ववत), व्याख्यान ४, पृ. ७७ २. लोकसाहित्य की भूमिका', पृ. २८१ ३. हिन्दी-साहित्य का इतिहास' (सत्रहवाँ पुनर्मुद्रण), नागरी-प्रचारिणी सभा, काशी, पृ. ११२