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अध्ययन:२
'वसुदेवहिण्डी' की पौराणिक कथाएँ 'वसुदेवहिण्डी' की कथा 'बृहत्कथा' की ही परम्परा का आवर्तन है । परम्परागत आख्यान या निजन्धरी होने के कारण ही 'वसुदेवहिण्डी' की कथा को 'लोककथा' या 'आख्यान' की संज्ञा से परिभाषित किया जायगा। यद्यपि, विद्वानों ने लोककथा की स्पष्ट परिभाषा उपस्थित करने की अपेक्षा अधिकांशतः उसकी विशेषताओं को ही संकेतित किया है। 'हिन्दी-साहित्यकोश' (भाग १) के अनुसार, लोक में प्रचलित तथा परम्परा से मौखिक रूप में प्राप्त कथा ही लोककथा है। फंक और वागनल्स द्वारा सम्पादित 'स्टैण्डर्ड डिक्शनरी ऑव फोकलोर' में कहा गया है कि लोककथा की सुनिश्चित परिभाषा देने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। सामान्यतः, इस शब्द के अन्तर्गत समस्त परम्परागत आख्यानों और उनके विभेदों को स्वीकृत किया गया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि 'लोककथा' शब्द मोटे तौर पर लोक प्रचलित उन कथानकों के लिए व्यवहृत होता रहा है, जो मौखिक या लिखित परम्परा से क्रमशः एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होती है।
लोककथाओं के सम्बन्ध में एक मत यह भी है कि वे मूलतः धर्मगाथाएँ ही हैं। काल के प्रभाव से लोककथाओं ने अपने 'धर्मगाथा' नाम का परित्याग कर दिया। लोककथा शब्द का प्रयोग कभी-कभी अँगरेजी-शब्द 'फोकटेल' के पर्यायवाची के रूप में भी होता है। अँगरेजी में यह शब्द बहुत व्यापक अर्थ रखता है और इसमें अवदान-लोककथा, धर्मगाथा, पशु-पक्षीकथा, नीतिकथाएँ आदि लोक-प्रचलित वार्ताएँ सम्मिलित की जा सकती हैं। ___लोककथा, चूँकि परम्परा-प्राप्त होती है, इसलिए इसमें मौलिकता प्रायः नहीं होती। इसकी मौलिकता कथाकार की कथन-पद्धति में निहित रहती है। यह परम्परा या अनुश्रुति विशुद्ध रूप में मौखिक भी हो सकती है। कभी-कभी मुखस्थ निजन्धरी या लोककथा में नये-नये कथाकारों द्वारा कुछ परिवर्तन एवं परिवर्द्धन भी कर दिया जाता है। 'बृहत्कथा' की परम्परागत कथा को उपन्यस्त करने के क्रम में वसुदेवहिण्डीकार ने यही किया है, साथ ही उसे जैनाचार से सम्बद्ध करके 'बृहत्कथा' के मूल संस्कार को भी सर्वथा बदल दिया है।
'कथा' के विभिन्न पर्याय:
संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में कामकथा बनाम धर्मकथा, उपाख्यान, अनुश्रुति एवं आख्यायिका आदि को सरघा-वृत्ति या मधुसंचय-व्यापार का आश्रय लेते हुए इस प्रकार सम्मिश्रित रूप से उपस्थित किया है कि उसे अलग-अलग करके विचारना सम्भव नहीं। बात ठीक भी है कि इन कथाभेदों का परस्पर इतना सघन सम्बन्ध है कि इनके बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींचना कठिन है। इसीलिए, संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में यथोपन्यस्त समानधर्मा लोककथाओं को विभिन्न संज्ञाएँ दी हैं। मुख्यकथा या विशिष्ट पुरुष की कथा को तो उन्होंने 'चरित' कहा है, जैसे 'वसुदेवचरित', 'जम्बूस्वामी-चरित', 'धम्मिल्लचरित', 'ऋषभस्वामी-चरित' आदि । किन्तु, उपकथाओं, अन्तःकथाओं या अवान्तरकथाओं आदि की संज्ञाओं का कोई विशिष्ट वर्गीकरण नहीं है।