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द्विसन्धान-महाकाव्य का सन्धानात्मक शिल्प-विधान
श्लेष-युक्त काव्य में पद को विभिन्न अर्थ के लिये विभिन्न प्रकार से नियोजित किया जाता है इस विधि को सभंग श्लेष कहते हैं । बाण और सुबन्धु ने इस विधि में सफलता प्राप्त की।
अग्रिम विकास इसका भाषा-श्लेष के रूप में हुआ जहाँ एक अर्थ संस्कृत से तथा दूसरा प्राकृत भाषा से समझा जाता है।
श्लेष का एक पद्य में होने से ही क्या है? यह तो सम्पूर्ण महाकाव्य में होना चाहिए, अत: दण्डी, सन्ध्याकरनन्दी, धनञ्जय तथा कविराज के दो अर्थों से युक्त, राजचूडामणि का राघवयादवपाण्डवीय तथा चिदम्बर की कथात्रयी तीन अर्थों से युक्त, अज्ञातनामा कवि का नलयादवराघवपाण्डवीय चार अर्थों से युक्त, चिदम्बर का पञ्चकल्याणचम्पू पाँच अर्थों से युक्त, किसी जैन तपस्वी का सप्तसन्धानकाव्य, तदनन्तर २४ अर्थों से युक्त, शतार्थक और अन्तिम विकास आठ लाख अर्थों वाले काव्यों में हुआ। इस युग में ऐसी रचनाएं सामान्य बात हो गयीं। एक पद्य को सरल रीति से पढ़कर उसी पद्य को उलटकर पढ़ने से अर्थ निकालकर नये एवं चमत्कारपूर्ण साहित्यिक कीर्तिमान स्थापित किये गये, जिन्हें गतप्रत्यागत या विलोम काव्य कहा जाता है। ऐसे काव्य दर्जनों की संख्या में लिखे गये, जिनमें सूर्यपण्डित का रामकृष्णविलोम-काव्य प्रसिद्ध था । द्विसन्धान-महाकाव्य इसी श्रृंखला से जुड़ा हुआ है, जिसमें रामायण तथा महाभारत की कथाएं एक साथ गुंथी हुई हैं। द्विसन्धान-महाकाव्य की कथावस्तु
__ 'द्विसन्धान-महाकाव्य' में 'द्विसन्धान' शब्द रचना के द्वयर्थी स्वभाव का सूचक है । इस महाकाव्य का अपर नाम 'राघवपाण्डवीय' है । यह नाम इस बात को प्रतिपादित करता है कि इस महाकाव्य में रामायण तथा महाभारत अथवारघुकुल व पाण्डुकुल की कथाएं एकसाथ सफलतापूर्वक निबद्ध की गयी हैं । यह महाकाव्य १८ सर्गों में विभाजित है। रामायण और महाभारत की कथा के सन्दर्भ में द्विसन्धान-महाकाव्य की कथावस्तु इस प्रकार है
प्रथम सर्ग
अयोध्याहास्तिनपुरव्यावर्णनम् सर्वप्रथम, मङ्गलाचरण में मुनिसुव्रत अथवा नेमि के उपचार से सभी तीर्थंकरों की वन्दना की गयी है। तदन्तर राम/पाण्डव कथा का महत्व बताते हुए गौतमगणधर के मुख से श्रेणिकराज को राम/पाण्डव कथा सुनवायी गयी है