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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना अकलंक, सन्मति (सुमति भट्टारक), महापुराण का कर्ता जिनसेन, जीवसिद्धिकार अनन्तकीर्ति, पल्यकीर्ति, द्विसन्धानकाव्यकार धनञ्जय, अनन्तवीर्य (प्रमेयरत्नमालाकार), श्लोकवार्तिकालंकार के कर्ता विद्यानन्द, विशेषवाद के नायक आचार्य और चन्द्रप्रभचरित के कर्ता वीरनन्दिन् की प्रशस्ति की है । वीरनन्दिन् के अतिरिक्त उक्त सभी आचार्य अरुंगुळान्वय से सम्बद्ध रहे हैं तथा पुरोहित पद में वादिराज के पूर्ववर्ती रहे हैं । इस प्रकार राघवपाण्डवीय का कर्ता धनञ्जय वादिराज से पूर्ववर्ती सिद्ध होता है । पुरोहित पद को अलंकृत करने वाले परवर्ती आचार्यों में धनञ्जय के नामोल्लेख की सूचना अभिलेखों में प्राप्य नहीं है । (श्रवणबेल्गोला के अभिलेख ५४(६७) के पद्य ३६ में मतिसागर के पश्चात् महामुनि हेमसेन का उल्लेख है, जो ९८५ ई. में पुरोहित था तथा विद्याधनञ्जय के नाम से प्रसिद्ध था। निष्कर्ष यह है कि यह हेमसेन (धनञ्जय) ही राघवपाण्डवीय या द्विसन्धान-काव्य का रचयिता था और सम्भवत: यह ग्रन्थ ९६०-१००० ई. के मध्य रचा गया।
नरसिंहाचारियर धनञ्जय को ९०० ई. से पूर्व स्वीकार करते हैं । ई.वी. वीरराघवाचार्य के अनुसार नाममाला तथा द्विसन्धान-काव्य के कर्ता धनञ्जय७५० से ८०० ई. के मध्य रहे होंगे। इन्होंने धनञ्जय को कविराज (६५० से ७२५ ई.) का परवर्ती स्वीकार किया है। (४) डॉ. ए.एन. उपाध्ये का मत (लगभग ८०० ई.)
ए.एन. उपाध्ये द्विसन्धान-महाकाव्य के कर्ता धनञ्जय का काल अकलंक (सातवीं-आठवीं शती) तथा धवलाकार वीरसेन (८१६ ई.) के मध्य लगभग८०० ई. मानते हैं। उनके मत में धनञ्जय किसी भी परिस्थिति में भोज (११वीं शती), जिसने धनञ्जय का विशेष रूप से उल्लेख किया है, के पश्चात् नहीं है । अपने मत की पुष्टि में उन्होंने निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किये हैं
१. पार्श्वनाथचरित,१.१६-३० २. JBBRAS (न्यू सिरीज़),भाग ३,पृ.१३८,तथा कर्णाटक कविचरित,भाग १,बंगलौर,
१९६१,पृ.११० ३. ई.वी. वीरराघवाचार्य : दी डेट आफ निघण्टुक धनञ्जय, जर्नल आफ दी आन्ध्र
हिस्टोरिकल रिसर्च सोसाइटी,भाग २,नं.२,राजमुंद्री,१९२७,पृ.१८१-८४ ४. विश्वेश्वरानन्द इण्डोलाजिकल जर्नल,भाग ८, अंक १-२,मार्च-सितम्बर,१९७०,
पृ.१२५-३४