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सन्धान महाकाव्य : इतिहास एवं परम्परा प्राचीन साहित्योद्धार ग्रन्थावली के द्वितीय पुष्प में टीका के साथ प्रकाशित हो चुका
वर्धमानगणि के समकालीन सोमप्रभाचार्य ने शतसन्धान-काव्य के रूप में एक पद्य की रचना की और उस पर अपनी टीका लिखी । इस पद्य के उन्होंने १०६ अर्थ किये हैं, जिनमें २४ तीर्थंकर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा चौलुक्यराज जयसिंह, कुमारपाल, अजयपाल आदि के अर्थ सम्मिलित हैं। यह भी अहमदाबाद से अनेकार्थ-साहित्य-संग्रह में प्रकाशित हो चुका है।
पन्द्रहवीं से बीसवीं शती तक जैन कवियों ने इस दिशा में प्रचुर रचनाएं लिखीं। उनमें महोपाध्याय समयसुन्दररचित अष्टलक्षी' (सं. १६४९) भारतीय काव्य-साहित्य का ही नहीं, विश्व-साहित्य का अद्वितीय रत्न है । कहा जाता है कि एक बार सम्राट अकबर की विद्वत्-सभा में जैनों के एगस्स सुतस्स अणन्तो अत्था' वाक्य का किसी ने उपहास किया। यह बात महोपाध्याय समयसुन्दर को बुरी लगी
और उन्होंने उक्त सूत्र-वाक्य की सार्थकता बतलाने के लिये राजानो ददते सौरव्यम्-इस आठ अक्षर वाले वाक्य के दस लाख बाईस हजार चार सौ सात अर्थ किये । वि. सं. १६४९ श्रावण शुक्ला त्रयोदशी को जब सम्राट ने कश्मीर का प्रथम प्रयाण किया, तो उसने प्रथम शिविर राजा श्री रामदास की वाटिका में स्थापित किया। यहाँ सन्ध्या के समय विद्वत्-सभा एकत्र हुई, जिसमें सम्राट अकबर, शहजादा सलीम, अनेक सामन्त, कवि, वैयाकरण एवं तार्किक विद्वान् सम्मिलित थे। सबके सम्मुख कविवर समयसुन्दर ने अपना यह ग्रन्थ पढ़कर सुनाया, जिसे सुनकर सम्राट् एवं सभासद आश्चर्यचकित रह गये । कवि ने उक्त अर्थों में से असम्भव या योजनाविरुद्ध पड़ने वाले अर्थों को निकालकर इस ग्रन्थ का नाम अष्टलक्षी रखा।
सोलहवीं तथा सतरहवीं शती के लगभग वेंकटाध्वरि कृत यादवराघवीय, सोमेश्वर कृत राघवयादवीय, चिदम्बर कृत राघवपाण्डवयादवीय आदि जैनेतर सन्धान-महाकाव्यों का निर्माण हुआ । यादवराघवीय में रामायण की कथा के साथ भागवत की कथा का वर्णन है । राघवयादवीय में राम तथा कृष्ण की कथाओं का १५ सर्गों में एकसाथ वर्णन किया गया है। राघवपाण्डवयादवीय में रामायण, महाभारत तथा भागवत की कथाओं का तीन सर्गों में एकसाथ संयोजन किया गया
है।
१. द्रष्टव्य-अष्टलक्षी,देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड,सूरत,ग्रन्थाङ्क८