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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना स्तोत्र-साहित्य के रूप में भी विकास किया है। उन्होंने द्विसन्धान, चतुस्सन्धान, पंचसन्धान, सप्तसन्धान एवं चतुर्विंशति-सन्धान आदि सन्धान-महाकाव्यों की रचना की है।
काव्य-जगत् में सन्धान-काव्यों की ओर कवियों की प्रवृत्ति पाँचवी-छठी शताब्दी ईस्वी से हुई । वसुदेवहिण्डी की चत्तारि-अट्ठगाथा के चौदह अर्थ किये गये हैं। संस्कृत के उपलब्ध सन्धान-महाकाव्यों मे जैन कवि धनञ्जय कृत १८ सर्गों का द्विसन्धान-महाकाव्य (आठवीं शती) सर्वप्रथम महाकाव्य है । इसमें श्लेष की सहायता से रामायण की कथा के साथ-साथ महाभारत की कथा भी वर्णित है। इन्हीं दो कथानकों को लेकर कालान्तर मे कविराज माधवभट्ट ने एक दूसरा महाकाव्य राघवपाण्डवीय तेरह सर्गों में लिखा। जैन सिद्धान्त भवन, आरा में ग्यारहवीं शती के पंचसन्धान-महाकाव्य की कन्नड़ पाण्डुलिपि उपलब्ध है । इसके रचयिता शान्तिराजकवि हैं । वि. सं. १०९० में सूराचार्य ने नेमिनाथचरित (नाभेयनेमिद्विसन्धान) की रचना की। इसके श्लेषम्य पद्यों से नेमिनाथ के साथ ऋषभदेव के जीवन-चरित का काव्यार्थ भी घटित होता है। बृहद्गच्छीय हेमचन्द्र सूरि का नाभेयनेमिद्विसन्धान(बारहवीं शताब्दी) भी एक अन्य रचना है । इस काव्य में भी नेमि और ऋषभ की कथाएं समानान्तर रूप से वर्णित हैं। कहा जाता है कि इसका संशोधन कविचक्रवर्ती श्रीपाल ने किया है । इस काव्य की पाण्डुलिपियाँ बड़ौदा और पाटण भण्डार में सुरक्षित हैं । बारहवीं शताब्दी में कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र ने सप्तसन्धान-महाकाव्य लिखा, जिसके प्रत्येक पद्य से सात अर्थ निकलते हैं । यह काव्य अनुपलब्ध है । इसी समय के लगभग सन्ध्याकरनन्दी ने रामचरित की रचना की जिसमें बंगाल के राजा रामपाल के जीवनचरित के साथ-साथ रामायण की कथा भी निबद्ध है। बारहवीं शताब्दी के लगभग ही विद्यामाधव ने पार्वतीरुक्मिणीय की रचना की, जिसमें शिव-पार्वती तथा कृष्ण-रुक्मिणी विवाहों का समानान्तर वर्णन है।
आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य वर्धमानगणि ने कुमारविहारप्रशस्तिकाव्य की रचना की। उन्होंने इसके ८७ वें पद्य में ऐसी अद्भुत अनेकार्थी संयोजना की, कि प्रारम्भ में उन्होंने उसके ६ अर्थ किये, किन्तु कालान्तर में उनके शिष्य ने उसके ११६ अर्थ किये । उनमें ३१ कुमारपाल,४१ हेमचन्द्राचार्य और १०९ अर्थ वाग्भट मंत्री के सम्बन्ध में निकलते हैं । यह पद्य अहमदाबाद से अनेकार्थ-साहित्य-संग्रह,