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सन्धान महाकाव्य इतिहास एवं परम्परा
__ अपभ्रंश के रोमांचक काव्यों में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं—(१) घनपाल कृत भविसयत्तकहा, (२) नयनन्दि कृत सुदंसणचरिउ (३) साधारणकवि कृत विलासवईकहा, (४) कनकामर कृत करकंडुचरिउ (५) सिद्ध तथा सिंह कवि कृत पज्जुण्णकहा, (६) कवि लक्ष्मण कृत जिणदत्तचरित (७) माणिकराज कृत णायकुमारचरिउ तथा (८) रइघू कृत सिद्धचक्कमाहप्प।
इनमें से भविसयत्तकहा ही ऐसा ग्रन्थ है, जिसे निश्चित रूप से महाकाव्य माना जा सकता है । दसवीं शती के कवि धनपाल ने श्रुतपंचमीव्रत का माहात्म्य प्रकट करने के लिये दृष्टान्त रूप में इस महाकाव्य की रचना की । हरिभद्र के प्राकृत कथा-ग्रन्थ समराइच्चकहा का प्रभाव इस काव्य पर स्पष्टत: परिलक्षित होता है। यद्यपि कवि ने अपने इस ग्रन्थ को कथा कहा है, तथापि इसकी शैली महाकाव्य की ही है । इसीलिए विन्टरनित्ज़ ने इसे कथा के ढंग का रोमांचक महाकाव्य माना है ।२ द्वितीय महत्त्वपूर्ण काव्य मुनि कनकामर का करकंडुचरिउ है, जिसे लघु रोमांचक महाकाव्य कहा जा सकता है । इसे बौद्धों और जैनों में समान रूप से मान्य करकंडु महाराज के जीवन-चरित को आधार बनाकर पंचकल्याणविधान का फल दिखाने के लिये लिखा गया है । बारह सन्धियों वाला सुदंसणचरिउ भी विचारणीय है। पण्डित परमानन्द जैन शास्त्री ने इसे महाकाव्य माना है । इसमें पंचणमोकार मंत्र का फल बताने के लिये सेठ सुदर्शन के चरित का वर्णन किया गया है । यह धार्मिक और उपदेशात्मक अधिक है, किन्तु पात्रों के चरित का मनोवैज्ञानिक चित्रण इसकी विशेषता है। (४) शास्त्रीय महाकाव्य
काव्य-शैली की अजस्र-धारा यद्यपि वैदिक काल से आज तक निरन्तर दिखायी देती है, किन्तु अलंकृत काव्य का स्वतन्त्र रूप वीर-युग के अनन्तर सामन्त युग के प्रारम्भिक काल से ही समझना चाहिए। ईस्वी सन् के आरम्भ तक लौकिक संस्कृत में काव्य-शैली परिष्कृत हो चुकी थी। इसके अतिरिक्त उसके लक्षण और आदर्श की स्थापना द्वारा उसका स्वरूप भी निश्चित हो चुका था। भरत के नाट्यशास्त्र, भास के नाटक और अश्वघोष के महाकाव्यों से यह तथ्य प्रमाणित १. निसुणंतहं एह णिम्मल पुण्णपवित्तकहा, भविसयत्तकहा,१.४ २. Winternitz : A History of Indian Literature, Vol.II, p.532 ३. अनेकान्त,मार्च १९५० ,पृ.३१३