________________
१७५
अलङ्कार-विन्यास
प्रस्तुत पद्य की रचना व तथा र -केवल दो ही वर्गों से हुई है, अत: यह द्विवर्णचित्र है । द्विसन्धान के पद्य १८.५१ तथा १८.७४ भी इसी प्रकार के प्रयोग हैं । द्विसन्धान में द्विवर्णचित्र का पादगत विन्यास भी हुआ है
भूरिरभ्रमरो रेभी कोऽनेकानीककाननम् ।
काकालिकी किलाकाले नोपापापो पिनापपुः ॥
प्रस्तुत पद्य के प्रत्येक पाद में क्रमश: भ तथा र, क तथा न, क और ल, न एवं भ-दो-दो वर्गों का विन्यास होने से, यह पादगत द्विवर्णचित्र है । पादगत द्विवर्णचित्र के लिये द्विसन्धान के पद्य १८.४५ तथा १८.१०३ भी दर्शनीय हैं । इनके अतिरिक्त पद्य १८. १२० के विषम चरणों में भी 'द्विवर्ण' का विन्यास हुआ है। (ग) एकवर्णचित्र
रैरोऽरिरीरुरूरारा रोरुरारारिरैरिरत् । रुरूरोरुरुरारारुरु रुरूरूररेरुरः ॥२
प्रस्तुत पद्य की रचना में केवल रकार का ही प्रयोग हुआ है, अत: एकवर्णचित्र है। २. आकार चित्र
वर्गों के विन्यास से विभिन्न पुष्प अथवा अस्त्र-शस्त्रों के आकार का उन्मुद्रित होना ही आकार चित्र है ।३ आकार चित्रों में कमल चित्र तथा चक्र चित्र ही अतिप्रसिद्ध हैं । द्विसन्धान-महाकाव्य में चक्र-बन्ध का सफल निबन्धन हुआ है। अरों के न्यूनाधिक्य से चक्र-बन्ध के अनेक भेद हो जाते हैं, किन्तु द्विसन्धान में विन्यस्त षडर चक्र नामक चक्र-बन्ध का सुन्दर उदाहरण है। षडर चक्र
छ: अरों वाले चक्र में कर्णिका रहती है, जिसमें एक वर्ण रहता है, जो प्रथम तीन चरणों का दसवाँ अक्षर होकर श्लिष्ट बनता है । प्रत्येक अर में नौ-नौ अक्षर लिखकर नेमि सन्धि में दो-दो अक्षर अंकित किये जाते हैं तथा दस चक्रों से इस
१. द्विस.,१८.४३ २. वही,१८.२१ ३. सर.कण्ठा .,२.१०९