________________
११६
सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना अभिप्राय यह है कि “अपने यश के कारण प्रबल नारायण ने क्रीडा करने की इच्छा करके सामने अत्यन्त ऊँचे गोवर्धन को देखा और आश्चर्य है कि केवल वृक्षों की जड़ों के उन्मूलन और तन्तु के समान टूटते सर्यों के साथ उसे वैसे ही भुजाओं से ऊपर उठा लिया था, जिस प्रकार वायु संसार को उठाये हुए है”। रामायण पक्ष में इसका अर्थ है – “अपने यश की वृद्धि की कामना करते हुए अभिमानी तथा उग्र रावण ने कैलाश पर्वत के अत्यन्त ऊँचे भाग में तपस्या करते अपने शत्रु को देख उसे अपने भुजदण्डों पर वैसे ही उठा दिया था, जैसे वायु ऊर्ध्वलोक को उठाये है। रावण के उठाने के समय पृथ्वीतल में वास करते हुए नाग धागों की भाँति टूट गये"।
प्रस्तुत स्थल पर 'उत्साह' स्थायी भाव है। 'गोवर्धन'अथवा 'रावण-शत्रु' आलम्बन विभाव तथा नारायण/रावण आश्रय है । गोवर्धन की ऊँचाई/कैलास के अत्युच्च स्थान पर तपस्या करना उद्दीपन है । वृक्षों की जड़ों का उन्मूलन तथा नागों का धागों की भाँति टूटना अनुभाव है। अभिमान, यशेच्छा, आदि व्यभिचारी भाव हैं, जिनसे वीर रस को परिपोषण प्राप्त हुआ है।
एक अन्य प्रसङ्ग में रावण/जरासन्ध के विरुद्ध आक्रमण नीति निर्धारित करने के लिये सुग्रीव/वासुदेव द्वारा आमन्त्रित मन्त्रियों तथा परामर्शदाताओं की सभा की कार्यवाही का वर्णन करते हुए धनञ्जय ने एक ही पद्य में रावण/जरासन्ध के शौर्य का कुशलतापूर्वक चित्रण किया हैएभिः शिरोभिरतिपीडितपादपीय
सङ्ग्रामरङ्गशवनतनसूत्रधारः । तं कंसमातुल इहारिगणं कृतान्त
दन्तान्तरं गमितवान्न समन्दशास्य: ॥ प्रस्तुत प्रसङ्ग में जाम्बवान्/बलराम के माध्यम से कवि ने रावण/जरासन्ध के अतिशय पराक्रम तथा युद्ध-कौशल को दर्शाया है । युद्धभूमि रूपी रंगमंच के निर्देशक के रूप में शवों के नृत्य का निर्देशन करते हुए और अपने सैन्यबल के सहयोग से समस्त शत्रुसमूह को यम के मुख में भेजने का सामर्थ्य रखते हुए
१. द्विस,११.३८