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सन्धान- कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
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सगैरनतिविस्तीर्णैः पद की व्याख्या करते हुए कहा है कि प्रत्येक सर्ग में तीस से अन्न तथा दौ सो से अनधिक पद्य हों ।' परम्परानुकूल ‘द्विसन्धान-महाकाव्य' सर्गबद्ध है । इसके विभिन्न सर्गों में क्रमश: ५०, ३४, ४३, ५५, ६९, ५२, ९५, ५८, ५२, ४६, ४१, ५२, ४४, ३९, ५०, ८७,९१, १४६ ( कुल ११०४) पद्य हैं। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन को दृष्टि में रखते हुए इसके सभी सर्ग न तो अधिक लम्बे, नही अधिक छोटे कहे जा सकते हैं ।
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परवर्ती काव्यशास्त्रियों में विश्वनाथ ने सर्गों की संख्या और उनके नामकरण पर भी विचार किया है। उनके अनुसार महाकाव्य में कम-से-कम आठ सर्ग होने चाहिएं और सभी सर्गों का नामकरण उनमें वर्णित कथा के आधार पर होना चाहिए । २ 'द्विसन्धान महाकाव्य' अठारह सर्गों का महाकाव्य है और इसके प्रत्येक सर्ग का नामकरण उसमें वर्णित कथा के आधार पर किया गया है । ३
२. कथानक
महाकाव्य का कथानक असंक्षिप्त अर्थात् विशाल होना चाहिए । अत्यन्त संक्षेप में वर्णित वस्तु रुचिकर नहीं होती । इसी कारणवश काव्यशास्त्रियों ने महाकाव्य का कथानक असंक्षिप्त होने पर बल दिया । एतदनुसार द्विसन्धानमहाकाव्य में सन्धान-विधा के माध्यम से राघव - पाण्डव कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
१.
काव्या,१.१८ पर रामचन्द्र मिश्र कृत 'प्रकाश' हिन्दी व्याख्या, पृ. २१ २. 'सर्गा अष्टाधिका इह । 'सा.द., ६.३२० तथा 'सर्गोपादेयकथया सर्गनाम तु ।' वही ६.३२५
३. प्रस्तुत ग्रन्थ, अध्याय ३
४.
का. भा., १.१९ तथा काव्या, १.१८
५. अतिसंक्षिप्तम्-अतिसंक्षेपवर्णितं हि वस्तु न स्वदते, यथा'वसुदेवात्समुत्पद्य पूतनां विनिपात्य च ।
कंसं हत्वा द्वारकायामुषित्वा स्वर्गतो हरि:' इति कृष्णकथानकं न रोचते । काव्या, १.१८ पर रामचन्द्र मिश्र कृत 'प्रकाश' संस्कृत व्याख्या, पृ. २१