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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना लिये उसने रामायण तथा महाभारत से प्रयत्नपूर्वक कुछ ऐसे स्थल खोज निकाले हैं, जिससे कि उसकी सन्धानात्मक काव्य शैली निर्बाध चल पायी है।
द्विसन्धान-महाकाव्यकार परम्परागत रस-अलंकार-छन्द-विन्यास के अतिरिक्त अक्षर-विन्यास के महत्व को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं । एक ओर वे सन्धान-विधा के लिये व्याकरण की योग्यता कवि के लिये आवश्यक मानते हैं तो दूसरी ओर चित्रकाव्य आदि की महत्ता पर भी बल देते हैं । अतएव, द्विसन्धानात्मक काव्य की शिल्पवैधानिक रचना-विधियों का मुख्यत: तीन विभागों में अध्ययन किया जा सकता है
१. श्लेषमूलक, २. यमकमूलक तथा ३. चित्रालंकारमूलक। १. श्लेषमूलक सन्धान-विधि
श्लेष अलंकार को आधार बनाकर प्राय: सभी संस्कृत काव्यशास्त्रियों तथा साहित्येतिहासकारों ने सन्धान विधि पर पर्याप्त ऊहापोह किया है । राघवपाण्डवीय के कर्ता कविराज ने सन्धान-काव्य की श्लेषमूलक रचनाशैली को निम्न पद्य में स्पष्ट किया है
प्राय: प्रकरणैक्येन विशेषण-विशेष्ययोः । परवृत्या क्वचित्तद्वदुपमानोपमेययोः । क्वचित्पदैश्च नानार्थैः क्वचिद्वक्रोक्तिभङ्गिभिः । विधास्यते मया काव्यं श्रीरामायणभारतम् ॥
कविराज की उपर्युक्त सन्धान-विधि का शिल्प-वैधानिक विश्लेषण अत्यन्त महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। कविराज ने सन्धान रचना विधि की एक प्रकार से तकनीकी प्रविधि का ही सृजन कर डाला। जिसकी निम्नलिखित पाँच विधाएं सम्भव हैं
१. द्विस.,१३-४ २. वही,३.३६-३७ ३. राघवपाण्डवीय,काव्यमाला-६२,बम्बई,१८९७,१.३७-३८