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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र
दुहओ गई बालस्स, पावईवहमूलिया। देवत्तं माणुसतं च, जं जिए लोलयासढे ।। १७ ।। तो जिए सई होइ, दुविहं दुग्गइं गए। दुल्लहा तस्स उम्मग्गा, अद्धाए सुचिरादवि ।। १८ ।। एवं जियं सहाए, तुलिया बालं च पण्डियं । मूलियं ते पवेसंति, माणुसिं जोणिमेन्ति जे ॥ १६ ॥ वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुव्वया । उवेंति माणुसं जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥ २० ॥ जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलियं ते आइच्छिया। सीसवन्ता सविसेसा, अदीणा जंति देवयं ।। २१ ।। एवमदीणवं भिक्खू , आगारिं च वियाणिया। कहएणु जिच्चमेलिक्खं, जिच्चमाणे न संविदे ।। २२ ॥ जहा कुसग्गे उदगं, समुद्देण सम मिणे । एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए ॥ २३ ॥ . कुसग्गमेत्ता इमे कामा, सन्निरुद्धम्मि आउए । कस्स हेउं पुराकाउं, जोगक्खेमं न संविदे ॥ २४ ॥ इह कामाणियहस्स, अत्तटे अवरज्झई । सोच्चा नेयाउयं मग्गं, जं भुजो परिभस्सई ॥ २५॥ इह कामणिय दृस्स, अत्तटे नावरज्झई । पूइदेहनिरोहेणं, भवे देवित्ति मे सुयं ।। २६ ॥ इड्ढी जुई जलो वएणो, आउं सुहमणुत्तरं । भुजो जत्थ मणुस्सेसु, तत्थ से उववजइ ॥ २७ ॥ बालस्स पस्स बालत्तं, अहम्मं पडिवजिया ! चिच्चा धम्मं अहम्मिटे, नरए उववजइ ॥ २८ ॥
१. कम्मसत्ता।