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[ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र
जे केइ सरीरे सत्ता, वरणे रूवे य सव्वसो । मणला कायवक्केणं, सच्चे ते दुक्खसंभवा ॥ ११ ॥ श्रावन्ना दीहमद्धाणं, संसारम्मि अांत । तम्हा सव्वदिसं पस्स, अप्पमत्तो परिव्व ॥ १२ ॥ बहिया उड्ढमादाय, नावखे कयाइ वि । पुव्वकम्प्रक्खयट्ठाए, इमे देहं समुद्धरे ॥ १३ ॥ 'विश्व कम्मुणो हेडं, कालकंखी परिव्वए । मायं पिंडस्स, पाणस्स कडे लधुण भक्व ॥ १४ ॥ सन्निहिं न कुत्रेजा, लेवमाथाएं संजए ।
पक्खीपत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्व ॥ १५ ॥ . एसणा समिओ लज्जू, गामे आणि चरे । अप्पमत्तो पत्तेर्हि, पिण्डवायं गवेसए || १६ ॥ एवं से उदाहु श्रणुत्तरनाणी अणुत्तरसी श्रणुत्तरनाणदंसणधरे रहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ इइ खुड्डागनियंठिज्जे छ अज्झयणं समत्तं ॥
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॥ ग्रह एलइज सत्तमं अभयणं । जहाएसं समुद्दिस्स, कोइ पोसेज एवयं । ओ जवसं देज, पोसेज वि लयंगणे ॥ १ ॥ तसे पुढे परिवूढे, जायतेव महोदरे । पीरिए विउले देहे. आएसं परिकंखए ॥ २ ॥ जाव न एइ एसे, ताब जीवइ से दुही | अह पत्तम्मि आपसे, सीसं छेत्तण भुजइ ॥ ३ ॥ जहा से खलु उरब्भे, आएसाए समीहिए । एवं बाले हम्मिट्ठे. ईहई नरयाउयं ॥ ४ ॥ १. विधि । २. पडिक