________________
श्रीउत्तराध्ययनसूत्र]
सुत्तसु प्रावी पडिबुद्धजीवी,
न वीससे पंडिय प्रासुपरणे । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं,
___ भारंडपक्खीव चरेऽपमत्त ॥६॥ चरे पयाइं परिसंकमाणे,
जं किंचि.पासं इह मन्नमाणो । लाभतरे जीविय व्हइत्ता,
पच्छा परिनाय मलावधंसी ॥७॥ छंदं निरोहेण उवेइ मोक्ख,
प्रासे जहा सिक्खियवम्मधारी । पुव्वाइं वासाइं चरप्पमत्ते,
तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मुक्खं ।।। स पुत्वमेवं न लमेज पच्छा,
एसोवमा सासयवाइयाणं । विसीयई सिढिले आउयम्मि,
कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥९।। खिप्पं न सकेइ विवेगमेउं,
.. तम्हा समुठ्ठाय पहाय कामे । समिञ्च लोयं समया महेसी,
अप्पाणरक्खी चरऽप्पमत्ते ॥१०॥ मुहं मुहं मोहगुणे जयंत,
अणेगरूवा समणं चरंतं । फासा फुसंति असमंजसं च,
न तेसि भिक्खू मणमा पउस्से ॥११॥ मन्दा य फासा बहुलोहणिजा,
तहप्पगारेसु मरणं न कुज्जा।