________________
१४]
[श्रीउत्तराध्ययनसूत्र
रक्खिज कोहं विणए ज मारणं,
मायं न सेवेज पहेज लोहं ॥१२॥ जे संखया तुच्छपरप्पवाई,
ते पिजदोसाणुगया परज्झा। एप अहम्मे त्ति दुगुंछमाणो,
कंखे गुणे जाव सरीरभेउ ।।१३॥ त्ति बेमि ॥ ॥ असंखयं चउत्थं अज्झयणं समत्तं ।। ।। अह अकाममरणिज्ज पञ्चमं अज्झयणं ।। अण्णवंसि महोहंसि, एगे 'तिण्णे दुरुत्तरं । तत्थ एगे महापन्न, इम पराहमुदाहरे ॥ १ ॥ सन्तिमे य दुवे ठाणा, अक्वाया मरणन्तिया । प्रकाममा चेव, सकासमर तहा।। २ ।। बालागं तु अकामं तु, मरणं असई भवे । पण्डिया सकापं तु, उक्कोसेण सई भवे ।। ३॥ तथिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं । कामगिद्धे जहा बाले, भिसं कूराई कुव्बई ॥ ४ ॥ जे गिद्धे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई । न मे दिट्टे परे लोए, चक्खुदिट्टा इमा रई ॥ ५ ॥ हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अगागया। को जाणइ परे लोए, अस्थि वा नत्थि वा पुणो ॥ ६ ॥ जणेण सद्धिं होक्खामि, इइ बाले पगभई । कामभोगाणुराए, केसं संपडियजई ॥ ७॥ तो से दण्डं समारभई, नसेसु थावरेसु य । अट्टाए य अणट्टाए, भूयगामं विहिंसई ॥८॥ १. तरइ । २. पट्टमु०।