________________
१०]
[ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र
तवोवहाणमादाय पडिमं पडिवजयो' । एवं पि विहरो मे, छउमं न नियट्टइ ॥ ४३ ॥ नत्थि नूगं परे लोए, इड्ढी वावि तवस्सिणो । अदुवा वंचित्रमित्ति, इइ भिक्खू न चिंतए ॥ ४४ ॥ अभू जिणा अस्थि जिला, अदुवावि भविस्सइ | मुसं ते एवमाहंसु, इइ भिक्खू न चिंतए ॥ ४५ ॥ एए परीसहा सव्वे, कासवेण पवेइया ।
चाउरंगिज्जं श्रयणं ॥
जे भिक्खू न विन्नज्जा, पुट्ठो के राइ कर हुई ||४६ ॥ त्ति बेमि ॥ || दुइ परिसज्यं समत्तं ॥ ॥ श्रह तह चत्तारि परमंगाणि दुलहाणीह जन्तुयो । माणुसतं सुईसद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥ १ ॥ समावन्नाण संसारे, नाणागोता सु जाइसु । कम्मा नागाविहा कट्टु, पुढो विस्संभिया पया ॥ २ ॥ एगया देवलोसु, नगएसु वि एगया । एगया आसुरं कार्य, अहाकम्मेहिं गच्छ ॥ ३ ॥ एगया खत्तिओ होइ, तो चण्डालवुकलो | तो कीडयेगो य तत्रो कुन्यु पित्रीलिया ॥ ४ ॥ एवमाहजोगीसु, पाणियो कम्मकिव्विसा : न निविजन्ति संसारे, 'सव्वसु व खत्तिया ॥ ५ ॥ कम्मसंगेहिं संमूढा, दुक्खिया बहुवेयगा |
9
माणुसासु जोगीसु, विणिहम्मन्ति पाणिणो ॥ ६ ॥ कम्मारणं तु पहाणार, चाणुपुःवी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुपत्ता, श्राययति मणुस्तयं ॥ ७ ॥ १. पडिवज्जिय । २. सम्वद्ध इव खतिए ।