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[ श्रीउत्तराध्ययन सूत्र
कपन इच्छिज सहाय लिच्छू,
पच्छाणुतावे न तवप्पभयं । एवं बियारे अमिय पयारे,
अवज्जइ इन्दियचोरवरसे || १०४ ॥ तओ से जायन्ति पश्रोषणाई,
निमज्जिडं मोहमहरुणवस्मि । सुहेस्णिो दुक्खविणोयड',
तप्पच्चयं उज्जमए य रागी ॥ १०५ ॥ विरजमाणस्स य इन्दियत्था,
सद्दाइया तावइयप्पगारा । न तस्स सच्चे वि मरगुन्नथं वा,
एवं
संजायई समयमुवट्टियरस | अत्थेय संकपत्र तओ से,
पीय कामगुणेषु तरहा ॥ १०७ ॥ स वीयरागो कय सव्व किञ्च्चो,
खवेइ नाणावर खणेणं । तहेव जं दंसणमावरेइ,
जं चन्तरायं पकरेइ कम्मं ॥ १०८ ॥ सव्वं तत्र जाणइ पासप य, अमोह होइ निरन्तराए । अणासवे झाणसमाहिजुत्ते,
निव्वत्तयंती अमणुन्नयं वा ॥ १०६ ॥ ससंकष्पविकपणासं,
उक्खए मोक्खमुद्देइ सुद्धे ॥ १०६ ॥ सो तस्स सव्वस दुस्स मुक्को,
जं वाहई सययं जन्तुमेयं ।