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श्रीउत्तराध्ययन सूत्र ]
एए परीसहा सव्वे, कासवेण पवेइया ।
जे भिक्खू न विहन्नेज्जा, पुट्टो केराइ कराहु ई ॥४६॥ न्ति बेमि ॥
|| दुइ
॥ श्रह तइ
परिसहज्झयणं समत्तं ॥ २॥
चाउरंगिज्जं श्रज्भयां ||
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चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥१॥ समावन्नाण संसारे, नाणागोत्तासु जाइल | कम्मा नागाविहा कट्टु, पुढो विस्संभिया पया ॥२॥ एगया देवलोपसु, नरपसु वि एगया एगया आसुरं कार्य, अहाकम्मेहिं गच्छ ॥३॥ एगया खत्तिओ होइ, तो चण्डालवुक्कसो । तो की डपयंगा य, तत्र कुन्थु पिवीलिया ॥४॥ एवमावट्टजोणीसु, पाणिणो कम्म किलिला । न निविजन्ति संसारे, सव्वट्ठेसु व खनिया ||५|| कम्मसंगेहिं संमूढा, दुक्खिया बहुवेयणा ।
माणुसासु जोणीसु, विणिहम्मैन्ति पाणिणो ॥ ६ ॥ कम्माणं तु पहाणार, आणुपुत्री कयाइ उ । जीवा सोहिमणुपत्ता, आययंति मणुम्सयं ॥७॥ माणुस्सं विग्गहं लधुं, सुई धम्मस्स दुलहा । जं सोच्चा पडिवजन्ति, तवं खंतिमहिंसये ॥८॥ श्रहश्च सवणं लद्धुं सद्धा परमदुल्लहा सोच्चा ने उयं मग्गं, बहवे परिभस्सइ ||९||
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सुइं च लद्धुं सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमाणावि, नो य गं पडिवजय ॥ १०॥