SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र ] | १९७ हेट्ठिमाहेट्टिपा चेव, हेट्ठिपामज्झिमा तहा । हेट्ठिमाउवरिमा चेव, मज्झिमाहेट्ठिपा तहा ॥२१२॥ मज्झिमामज्झिमा चेव, मज्झिमाउवरिमा तहा। उवरिमाहेटिमा चेव, उवरिमामज्झिमा तहा ॥२१३॥ उवरिमाउवरिमा चेव, इय गेविजगा सुरा । विजया वेजयन्ता य, जयन्ता अपराजिया ॥२१४॥ सव्वत्थसिद्धगा चेव, पंचहाणुत्तरा सुरा । इय वेमाणिया एपडणेगहा एवमायो ॥२१॥ लोगस्स एगदेसम्मि, ते सधेवि वियाहिया । इत्तो कालविभागं तु, वुच्छं तेसिं चउम्विहं ॥२१६॥ संतई पप्प ऽणाईया, अपजवसियावि य । ठिई पडुच्च साइया, सपजवसियावि य ॥२१७॥ साहियं सागरं एक उक्कोण ठिई भवे । भोमेजाणं जहन्त्रेणं, दसवाससहस्सिया ॥२१८।। (पलिअोवम दो ऊणा उक्कोसेण वियाहिया। असुरिन्दवज्जेताण जहन्ना दससहस्सगा॥) पलिओवममेगं तु, उक्कोसेण ठिई भधे । वन्तराणं जहननेणं, दसवाससहस्सिया ॥२१॥ पलिओवममेगं तु, वासलक्खेण साहियं । पलि ग्रोवमट्ठभागो, जोइसेसु जहन्निया ॥२२०॥ दो चेव सागराइं, उक्कोसेण वियाहिया। सोहम्मम्मि जहन्ने, एगं च पलिग्रोवमं ॥२२१॥
SR No.022602
Book TitleJivan Shreyaskar Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKesharben Amrutlal Zaveri
PublisherKesharben Amrutlal Zaveri
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy