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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र 1
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कायठिई खहयराणं, अन्तरे तेसिमे भवे । अणन्तकालमुक्कोसं, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं ॥१९२।। एएसिं वरण श्रो चेच, गन्ध ओरसफासो । संठाणादेसो घावि, विहाणाई सहस्ससो॥१६३॥ मणुया दुविहभेया उ, ते मे कित्तयो सुण । संमुच्छिमा य मणुया, गब्भवकन्तिया तहा ।।१९४॥ गम्भवकन्तिया जे उ, तिविहा ते वियाहिया। कम्मश्रकम्मभूमा य, अन्तरद्दीवया तहा ॥१९॥ पन्नरस तीसविहा, भेया अटवीसइं। संखा उ कमसो तेसिं, इइ एसा वियाहिया ॥१६६।। संमुच्छिमाण एसेव, मेरो होइ वियाहिो। लोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वे वि वियाहिया ।. १६७॥ संतई पप्प ऽणाइया, अपज्जवसियावि य । ठिई पडुच्च साईया, सपजवसियावि य ॥१९८।। पलिग्रोवमाइ तिरिणवि, उक्कोसेण वियाहिया । आउट्टिई मणुयाणं, अन्तोमुहुत्तं जहनिया ॥१९६॥ पलिअोवमाइं तिरिण उ, उक्कोसेण वियाहिया। पुवकोडिपुहत्तेणं, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं ॥२००। कायठिई मणुया, अन्तरं तेसिमं भवे । अणन्तकालमुक्कोसं, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं ॥२०१॥ एएसिं वरणओ चेव, गन्धो रसफासो । संठाणादेसमो वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥२०२।। देवा चउब्विहा वुत्ता, ते मे कित्तयो सुण । भोमिजवाणमन्तरजोइसवेमाणिया तहा ॥२०३॥