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________________ 'श्रीउत्तराध्ययनसूत्र ] [१७६ निज्जूहिऊण आहारं, कालधम्मे उवट्ठिए । जहिऊण माणुसं बोन्दि, पहू दुक्खा विमुच्चई ।।२०।। निम्नमे निरहंकारे, वीयरागो अणासवो। संपत्तो केवलं नाणं, सासयं परिणिव्वुए ॥२१।। त्ति बेमि । ॥ अणगारज्झयणं समत्तं ॥३५॥ ।। अह जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं ।। जीवाजीवविभत्तिं मे, सुणेहेगमणा इओ। जं जाणि ऊरण भिक्खू , सम्मं जयइ संजमे ॥१॥ जीवा चैव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। " अजीवदेसमागासे, अलोगे से वियाहिए ॥२॥ दव्यत्रो खेत्तो चेव, कालओ भावओ तहा । परूवणा तेसिं भवे, जीवाणमजीवाण य ॥३॥ रूविणो चेव रूवी य, अजीवा दुविहा भवे । अरूवी दसहा वुत्ता, रूविणो य चउबिहा ॥४॥ धम्मत्थिकाए तद्देसे, तप्पएसे य पाहिए । अहम्मे तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए ॥५॥ आगासे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए । अद्धासमए चेव. अरूवी दसहा भवे ॥६।। धम्माधम्मे य दो चेव, लोग मित्ता वियाहिया । लोगालोगे य ागासे, समए समयखेत्तिए ॥७॥ धम्माधम्मागासा, तिन्निवि एए प्रणाइया । अपज्जवसिया चेव, सव्वद्धं तु वियाहिए ।।८।। समएवि सन्तई पप्प, एवमेव वियाहिया । श्राएसं पप्प साईए, सपजवसिएवि य ॥६।। १. चइऊण ।
SR No.022602
Book TitleJivan Shreyaskar Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKesharben Amrutlal Zaveri
PublisherKesharben Amrutlal Zaveri
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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