________________
श्रीउत्तराध्ययनसूत्र]
[५५
न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पइ । अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासइ ॥१२॥ कलहडमरवजिए बुद्धे अभिजाइगे। हिरिमं पडिसंलीणे, सुविणीए त्ति वुच्चइ ॥१३॥ वसे गुरुकुले निश्चं, जोगवं उवहाणवं । पियंकरे पियवाई, से सिक्खं लद्धमरिहइ ॥१४॥ जहा संखम्मि पयं, निहियं दुहओ वि विरायइ । एवं बहुस्सुए भिक्खू , धम्मो कित्ती तहा सुयं ॥१५॥ जहा से कम्बोया, अाइराणे कन्थए सिया। श्रासे जवेण पवरे, एवं हवइ बहुस्सुए ॥१६॥ जहाइराणसमारूढे, सूरे दढपरक्कमे । उभो नन्दिघोसेणं, एवं हवइ बहुस्सुए ।।१७।। जहा करेणुपरिकिराणे, कुंजरे सट्रिहायणे। बलवंते अप्पडिहए, एवं हवइ बहुस्सुए ॥१८'। जहा से तिक्खसिंगे, जायखन्धे विरायइ । वसहे जहाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए ॥१६॥ जहा से तिक्खदाढे, उदग्गे दुप्पहंसए । सीहे मियाण पवरे, एवं हवह बहुस्सुए ॥२०॥ जहा से वासुदेवे, संखचक्कगयाधरे । अप्पडिहयबले जोहे, एवं हवइ बहुस्सुए ॥२।। जहा से चाउरन्ते, चकवट्टीमहिड्ढिए। चोद्दसरयणाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए ॥२२।। जहा से सहस्सक्खे, वजपाणी पुरन्दरे । सके देवाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए ॥२३॥ जहा से तिमिरविद्धंसे, उचिट्ठन्ते दिवायरे । जलन्ते इव तेएण, एवं हवइ बहुम्लुए ॥२४॥