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बारसहिं वि अंगेहिं सामाइयमाइ पुवनिबद्धे ।। लट्ठ-गहियटुं तं. आयरियं पससंति ॥ २७ ॥
जिस में प्रथम सामायिक और अंत में पूर्व निबद्ध है ऐसी द्वादशांगी के अर्थ को जिन्होंने प्राप्त किया है, ग्रहण किया है ऐसे आचार्य की विद्वद् जन श्लाघा करते हैं। आयरिय सहस्साई लहइ य जीवे मवेहिं बहुएहिं । कम्मेसु य सिप्पिसु य अन्नेसु य धम्मचरणेसु ॥ २८ ॥
अनादि संसार में अनेक भवों में इस जीवने कर्म एवं शिल्पाचार्य और अन्य हजारों धर्माचार्य प्राप्त किये है । [परंतु वे भव समुद्र से पार होने की कलाके उपदेशक न होने से वास्तविक आचार्य नहीं है] जे पुण जिणोवइढे निग्गंथे पवयणम्मि आयरिया । संसारमुक्खमग्गस्स देसगा ते हु आयरिया ॥ २९ ॥
सर्वज्ञ कथित निर्ग्रन्थ प्रवचन में, जो संसार और मोक्ष मार्ग के यथार्थ उपदेशक है । वे ही परमार्थ से परम श्रेष्ठ आचार्य है। जह दीवा दीवसयं पइप्पए सो उ दिप्पए दीवो। दीवसमा आयरिया अप्पं च परं च दीवंति ॥ ३०॥
जैसे एक प्रदीप्त दीपक से शतश : दीपक प्रकाशित होते है फिर भी वह दीपक प्रदीप्त प्रकाशमान ही रहता है । वैसे दीपक समान आचार्य भगवंत स्व-पर आत्म उद्धारक होते हैं । धन्ना आयरियाणं निच्चं आइच्चचंदभूयाणं । संसारमहण्णवतारयाणं पाए पणिवयंति ॥ ३१ ॥
- सूर्य समान प्रतापी, चंद्र समान सौम्य शीतल, और कांतिमय और संसारार्णव से तारक आचार्य भगवंत के चरणों में पुण्यशाली प्रतिदिन प्रणाम करते हैं । वे धन्य हैं। इह लोइयं च कितिं लहइय आयरियमत्तिराएण।। देवगई सुविसुद्धं धम्मे य अणुत्तरं बोहिं ॥ ३२ ॥
ऐसे उत्तमाचार्य की भक्ति राग से इस लोक में कीर्ति, परलोक में उत्तम गति और धर्म में अनुत्तर अनन्य श्रद्धा प्राप्त होती है ।।
पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेज्झय पइण्णयं'