SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवा वि देवलोए निच्वं दिव्बोहिणा वियाणित्ता । आयरियाण सरंता आसणसयणाई मुंचंति ॥ ३३॥ देवलोक के देव दिव्य अवधिज्ञान से आचार्य भगवंत को देखकर गुणस्मरण करते हुए नित्य अपने आसन शयन आदि से उठकर खडे होकर प्रणाम करते हैं। देवावि देवलोए निग्गंथं पवयणं अणुसरंता ।। अच्छरगणमज्झगया आयरिए वंदयाइंति ॥ ३४ ॥ देवलोक में अप्सराओं के मध्य में रहे हुए देव भी निर्ग्रन्थ प्रवचन-जिनशासन का स्मरण करते करते अप्सराओं के द्वारा आचार्यो को वंदन करवाते हैं । छट्टट्ठमदसमदुवालसेहिं भत्तेहिं उववसंता वि । अकरिता गुरुवयणं ते हंति अणंत संसारी ॥ ३५ ॥ जो साधु छट्ठ, अट्ठम, चार उपवास आदि दुष्कर तप करते हुए भी गुरु, वचन का पालन नहीं करते वे अनंत संसारी होते हैं | ए ए अनेय बहुआयरियाणं गुणा अपरिमिज्जा । सीसाण गुणविसेसे केवि समासेण वुच्छामि ॥ ३६ ॥ यहाँ बताये वे और अन्य भी अनेक आचार्य भगवंत के गुण होने से उनकी संख्या का प्रमाण नहीं हो सकता । अब मैं शिष्य के विशिष्ट गुणों को संक्षेप में कहूँगा । 'शिष्यगुण' नीयावित्ति विणीयं अमत्तयं गुणवियाणयं सुयणं । आयरियमइवियाणिं सीसं कुसला पसंसंति ॥ ३७ ॥ ___ नम्रवृत्तिवान, विनीत, निरभिमानी, गुणज्ञ, सज्जन और आचार्य के अभिप्राय का ज्ञाता उस शिष्य की प्रशंसा पंडित करते हैं । सीयसहं उव्हसहं वायसहं खुह-पिवास अरइसहं । पुढवीवसब्बसहं सीसं कुसला पसंसंति ॥ ३८ ॥ शीत, ताप, वायु, क्षुधा, प्यास और अरति को महन करनेवाला. पृज समान प्रतिकुलतादि को सहन करनेवाले शिष्य की कुशल पुरुष प्रशंसा करते है। पूर्वाचार्य रचित "सिरिवंदावेज्झाय पाणयं
SR No.022597
Book TitleSirichandvejjhay Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_chandravedhyak
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy