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लाभेसु अलाभेसु च अविवण्णो होइ जस्समुहवण्णो । अपिच्छं संतुट्टं सीसं कुसला पसंसंति ॥ ३९॥
उपधि आदि के लाभ या अलाभ के प्रसंग में भी जिनके मुख का रंग हर्ष या खेद युक्त नहीं होता और जो अल्प इच्छावाला और सदा संतुष्ट होता है । उस शिष्य की पंडितजन प्रशंसा करते हैं ॥
छव्विहविणय विहिन्नू अज्झइयो सो हु कुच्चइ विण (णी) ओ । गारवरहियं सीसं कुसला पसंसंति ॥ ४० ॥
जो छ प्रकार की विनय विधि का ज्ञाता है, आत्महित की रूचिवाला है ऐसा विनीत और ऋद्धि आदि गारव रहित शिष्य की गीतार्थ पुरुष प्रशंसा करते हैं ।
दसविहवेयावच्चमि उज्जयं उ (न्न)ज्जयं च सज्झाए । सव्वावस्सगजुत्तं सीसं कुसला पसंसंति ॥ ४१ ॥
दश प्रकार की वैयावच्च में उद्यत वाचनादि स्वाध्याय में प्रयत्नशील, सर्व आवश्यक में उद्युक्त अप्रमत्त शिष्य की ज्ञानी पुरुष प्रशंसा करते हैं ।
आयरियवन्नवाइं गणिसेविं कित्तिवद्धणं धीरं । धीधणियबद्धकच्छं सीसं कुसला पसंसंति ॥ ४२ ॥
आचार्य भगवंत के गुणगायक, गच्छवासी गुरु और शासन के कीर्ति वर्धक, निर्मल प्रज्ञासे स्व ध्येय प्रति जागृत शिष्य की महर्षिजन प्रशंसा करते है ।
हंतु सव्वमाणं सीसो होऊण ताव सिक्खाहि ।
सीसस्स हुंति सीसा न हुंति सीसा . असीसस्स ॥ ४३ ॥
मुमुक्षु ! सभी प्रकार से मान, मारकर, ग्रहण और आसेवन शिक्षा प्राप्तकर शिष्यत्व प्रकट कर जिससे सुविनीत शिष्य के शिष्य होते है अविनीत अशिष्य के नहीं । [सुविनीत शिष्य ही गुरुपद के योग्य है ]
वयणाई सुकडुयाइं पणयसिद्धाइं विसहियव्वाइं । सीसेणायरियाणं नीसेसं मग्गमाणेणं ॥ ४४ ॥
सुविनीत शिष्य को गुरु के अतिशय कटु और अति प्रेमाल वचनों को अच्छी प्रकार सहन करने चाहिए । [ मनमें रोष - तोष नहीं आना चाहिए] पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेज्झय पइणयं'
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