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________________ जाइकुलरुवजुव्वणबलविरियसमत्तसत्तसंजुत्तं । मिउसद्दवाइमपि सुणमसढमथद्धं अलोभं च ॥ ४५ ॥ अब शिष्य की परिक्षा के लिए उसके कितने ही विशिष्ट लक्षण और बताते हैं । जो पुरुष उत्तम जाति, कुल-रुप-यौवन-बल-वीर्य - पराक्रम-समता और सत्व गुणयुक्त हो मधुरभाषी, अ-पर परिवादी, अशठ, नम्र और अलोभी हो । पडिपुण्णं पाणिपायं अणुलोमं निद्धउवचियसरीरं । गंभीर तुङ्गनासं उदारदिट्ठि विसाल लच्छं ॥ ४६ ॥ अक्षत हस्त, पादवान, अणुलोमवाला, स्निग्ध और पुष्ट देह युक्त, गंभीर, उन्नत नासिका वान, उदार दृष्टि दीर्घ दृष्टि वाला और विशाल नेत्र वाला । जिणसासणमणुरत्तं गुरु जण मुहपिच्छगं च धीरंच । सद्धागुणपडिपुत्रं विकारविरयं विजयमूलं ॥ ४७ ॥ जिनशासन का अनुरागी, गुरुमुखदर्शक, धीर, श्रद्धा गुण से परिपूर्ण, विकार रहित और विनय प्रधान जीवन जीनेवाला । कालन्नुं देसनुं समयन्नुं सीलरूवविणयन्नुं । लोहभयमोहरहियं जिय निद्धपरीसहं चेव ॥ ४८ ॥ काल, देश और समय-प्रसंग को पहचानने वाला, शील रूप विनय का ज्ञाता, लोभ, भय, मोह से रहित, निद्रा और परीषह जयी को कुशल पुरुष शिष्य कहते है । जइवि सुयनाण कुसलो होइ नरो हेउकारण विहिन्नू । अविणीयं गारवियं न तं सुयहरा पसंसंति ॥ ४९ ॥ कोइ शिष्य कदाचित् श्रुतज्ञान में कुशल हो, हेतु, कारण और उसके प्रयोग की विधिका ज्ञाता हो फिर भी यदी वह अविनीत और गौरव (मान) युक्त हो तो भी श्रुतधर महर्षि उसकी प्रशंसा नहीं करते । सीसं सुइमणुरतं निच्चं विणयोवयारसंजुत्तं । वाएज्जज्जवगुणजुत्तं पवयण सोहाकरं धीरं ॥ ५० ॥ पवित्र, अनुरागी, नित्य, विनयाचार युक्त, सरल हृदयी, प्रवचन प्रभावक और धीर ऐसे शिष्य को आगम की वाचना नित्य देनी चाहिए || पूर्वाचार्य रचित 'सिरिचंदावेदाय पइण्णयं 99
SR No.022597
Book TitleSirichandvejjhay Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya, Kalapurnasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_chandravedhyak
File Size3 MB
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