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श्री आचारांगसूत्रम्
जब-जब जैनागम पढ़ो, अति आनन्द विभोर । रोम-रोम श्रद्धा बढ़े, जैसे चन्द्र चकोर । । १०७ ।। जब तक आगम नहिं पढ़े, तब तक मिथ्या राग । नीर-क्षीर को अलग कर, किया नीर का त्याग । । १०८ । । जैनागम आश्रय सदा, लता-विटप का न्याय । अरे चराचर जगत् में, ज्यों धर्मास्तिकाय ।। १०९ ।। जैनागम भूषण महा, धारक भव्य सदैव । सूरि 'सुशील' वरण करे, हरि कमला स्वयमेव । । ११० । । अक्षर-अक्षर मंत्र है, तवपंक्ति कोष समान । जैनागम चिन्तामणी, उपमा भी निष्प्राण । । १११ । । जैनागम महिमा महा, अचिन्त्य जगत्प्रभाव । व्याकुल जो भव भोग से, पाये आत्म स्वभाव । । ११२ । । जननीसम आगम अहो ! देते हित उपदेश । फिर भी मूढ़ विवेक बिन, पाते सतत कलेश । । ११३ । । अवलोकन आगम करे, संशय करे न कोय । समझ न आये शीघ्र ही, पृच्छा से हित होय ।। ११४।। गहन मर्म प्रकटित करे, जैनागम आधार । अतः प्रथम कर लीजिए, सूत्र ज्ञान निर्धार । । ११५ । । भक्ति - शक्ति दोनों सुलभ, जैनागम दें श्रेष्ठ । बाकी विकथावाद है, बनकर रहो सचेष्ट ।। ११६।। जैनागम अभ्यास बिन, मोह न होगा छार ।
सूरि 'सुशील' अनुभव यही कहता बारम्बार । । ११७।।
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अल्प बुद्धि फिर भी करो, तुम आगम अभ्यास । उतरेगा अनुभूति में, अविचल आत्म- प्रकाश । । ११८ । ।