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श्री आचारांगसूत्रम्
संयम त्याग विराग का, जिन आगम सन्देश। बहुत सुगम यह राजपथ, सूरि ‘सुशील' जिनेश ।।३६ ।। जीव-दया वाणी सुखद, जिन आगम नवनीत । मुनि ‘सुशील' क्रमबद्ध से, लिखता भाव पुनीत।।३७ ।। रवि किरणें हैं सूत्र सब, हरण तिमिर अज्ञान ।
आँख तीसरी रुद्र की, नाशै काम महान ।।३८ ।। ऋषिभाषित भाषा अहा, संस्कृत-प्राकृत दोय। अल्प शब्द गम्भीर अति, भाव गहन अवलोय।।३९ ।। जय कालिक जिनवर अहो! दे आगम उपदेश। कथा-पात्र ही बदलते, अक्षय भाव विशेष।।४०।। दोष-रहित वाणी अहो! जैनागम कहलाय। मुनि 'सुशील' संक्षेप में, सार-सार समझाय।।४१ ।। जैनागम वर्णन सुखद, जीवन का आचार । मुनि 'सुशील' विचारना, करता बारम्बार ।।४२ ।। जिनवाणी जिनवर वचन, साधक जीवन-प्राण। सकल दोष को वेधते, जैनागम के बाण।।४३ ।। महिमा जैनागम कहूँ, पहुँचे जहाँ न काल। भ्रान्त बुद्धि विध्वंस हो, हो वन्दन त्रयकाल।।४४।।
श्री श्रुत वन्दन जन्म-मरण अरु कष्ट मय, महितल कारागार। श्रुतदेवी तू शीघ्र ही, बन्धन दूर विडार।।४५ ।। देव-असुर-नर पूजते, नित्य सदा श्रुतज्ञान। जिन आगम सिद्धान्त पद, हो वन्दन श्रद्धान।।४६ ।। जैनागम राकेश है, निश-दिन रहता व्योम । राहु न ग्रसे कुतर्क का, निष्कलंक यह सोम।।४७ ।।