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आत्म निवेदनम
आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने देव विरचित समवसरण में इन्द्रभूति आदि एकादश समर्थ विद्वानों को अपने-अपने शिष्य परिवार सहित वेदपदों का सत्यार्थ समझा तथा जैन भागवती दीक्षा प्रदान की। उस समय धर्म तीर्थ की स्थापना करते हुए भगवान महावीर स्वामी ने उन एकादश विद्वानों को गणधर के उत्कृष्ट पदवी से अलंकृत करते हुए जैनागम दर्शन के मौलिक सिद्धान्त उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूपी त्रिपदी का सविधि सार्थक रहस्य भी समझाया।
अनुपम त्रिपदी को का आत्मसात् करते पूज्य गणधरों ने अद्भुत द्वादशाङ्गी की रचना की। उसमें सर्वप्रथम चौदहपूर्व की रचना हुई। चौदह पूर्व के समूह को पूर्वगत कहते हैं।
द्वादशाङ्गी के बारह अंगों में से एक अङ्ग दृष्टिपाद (दिट्ठिवाए) प्रायः . पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व ही विच्छिन्न हो गया। सम्प्रति एकादश अङ्ग सूत्र ही प्राप्त होते हैं1. आचारांग सूत्र
2. सूत्रकृतांग सूत्र 3. स्थानाङ्ग सूत्र
4. समवायाङ्ग सूत्र 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र 6. ज्ञाताधर्मकथा सूत्र 7. उपासकदर्शाङ्ग सूत्र 8. अन्तकृताङ्ग सूत्र 9. अनुत्तरोपपात्तिकदशा सूत्र 10. प्रश्नव्याकरण सूत्र 11. विपाक सूत्र।
सुविदित है कि आचारांग सूत्र पैंतालीस आगम सूत्रों में सर्वप्रथम परिगणित है। वस्तुतः यह प्रथम अंग स्वरूप आगम है। इसके अनेक नाम प्रचलित हैं। जैसे-नियुक्तिकार श्री भद्रबाहु स्वामी जी ने इस सूत्र के अलग-अलग 10 नाम बताये हैं-(1) आचारा, (2) आचाल, (3) आगाल, (4) आकार, (5) आश्वास, (6) आदर्श, (7) अंग, (8) आचीर्ण, (9) आजाति, (10) आमोज्ञ। फिर भी आचारांग के नाम से ही इसे सर्वत्र प्रसिद्धि प्राप्त है। इसमें श्रमण-जीवन के आचारों का विस्तृत वर्णन, श्रमण भगवान महावीर