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सुत्रकार श्री ने दांत साफ करने की सली जैसी वस्तु बिना याचना किये लेने का निषेध कर यह स्पष्ट किया है कि साध्वाचार में अदत्त अग्रहण का कितना महत्व है? तृतीय संयम स्थान। चतुर्थ संयम स्थान अब्रह्म का त्याग"
अबंभचरिअं घोरं, पमायं दुरहिट्ठि। नायरंति मुणीलोए, भेआययणवणिज्जो॥१६॥ . .
मूलमेयमहमस्स, महादोससमुस्सयं।
तम्हा मेहुण संसग्गं. निग्गंथा वज्जयंति गं॥१७॥ चारित्र का नाश हो ऐसे स्थान के त्यागी, चारित्राचार पालक पापभीरू, मुनि, रौद्र अनुष्ठान के हेतुभूत, सर्व प्रमाद के मूल रूप में और अनंत संसारवर्द्धक होने से एवं आगमज्ञ भव्यात्माओं के द्वारा अनाचरित ऐसे अब्रह्मचर्य का आचरण नहीं करते । क्योंकि भगवंत ने इसे “अधर्म का मूल एवं महादोषों का ढेर" जैसा कहा है अर्थात् अब्रह्मचर्य का सेवन अधर्म की जड़ है इससे अनेक प्रकार के पापाचरण होते हैं इस कारण से निग्रंथ महापुरुष मैथुन संसर्ग का त्याग करते हैं। इति चतुर्थ सयंम स्थान। १६,१७। पंचम स्थान अपरिग्रह"
बिडमुभेइमं, लोणं, तिलं, सप्पिं च फाणि न ते संनिहिमिच्छंति, नायपुत्त व ओरया। लोहस्सेस अणुप्फासे, मुन्ने अन्नयरामविक जे सिया सन्निहिं कामे, गिही पव्वइए न से जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पाय पुंछपा। तं पि संजमलज्जट्ठा, धारंति परिहरंति अन्य न सो परिग्गहो वुत्तो, नाय पुत्तेण ताइणाम मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इअ वुत्तं महेसिणा।। सव्वत्थुवहिणा बुद्धा संरक्खण परिग्गहे।
अवि अप्पणोऽ वि देहमि, नायरंति ममाइयं॥२२॥ ज्ञातपुत्र श्री महावीर परमात्मा के वचन में अनुरक्त मुनि गोमुत्रादि से पकाया हुआ प्रासुक नमक, समुद्रादि सचित्त नमक, तेल, घृत, नरम गुड़ आदि किसी भी प्रकार का पदार्थ सनिधि के रूप में रातभर रखना नहीं चाहते। क्योंकि भगवंत ने कहा है :
संनिधि रखना यह लोभ कषाय का प्रभाव है। अल्प मात्रा में भी सन्निधि को रखने
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ७१