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सव्वेजीवावि इच्छंति, जीवीउ न मरिज्जिउं।
तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥११॥ पूर्वोक्त अठारह स्थानों में प्रथम श्री महावीर परमात्मा ने अहिंसा पालन कहा हुआ है। यह अहिंसा धर्म के पालन आधाकर्मादि दोषों के त्याग द्वारा सूक्ष्म प्रकार से धर्म के साधन रुप स्वयं (भगवंत) ने देखा है इसी कारण से सभी जीवों के प्रति संयम रूप दया रखना चाहिये।
इस लोक में जितने भी त्रस जीव एवं स्थावर जीव हैं उन समस्त जीवों को जानते अजानते स्वयं मारे नहीं, मरवारें नहीं उपलक्षण से मारते हुए की अनुमोदना न करें। क्योंकि :____भगवंत ने कहा है कि- सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इस कारण घोर नरकादि दुःख दायक प्राणीवध का निग्रंथ त्याग करता है। यह प्रथम स्थान" ॥९,१०॥ द्वितीय स्थान "असत्य त्याम"
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूआ नो वि अन्नं वयावए॥१२॥ मुसावाओ उलोगम्मि, सव्वसाहहिं गरिहिओ। ..
अविस्साओ अ भूआणं, तम्हा मोसं विवज्जए॥१३॥ स्व पर पीड़ा दायक असत्य वचन मुनि क्रोध से (लोभ से) भय से (हास्य से एक का ग्रहण तज्जातीय का ग्रहण) स्व के लिए पर के लिए बोले नहीं दूसरों से बोलावे नहीं उपलक्षण से बोलने वाले की अनुमोदना करे नहीं। .. असत्य वचन विश्व में लोक में सभी उत्तम पुरुषों ने निंदनीय माना है। प्राणीओं को असत्य भाषी अविश्वसनीय है, इस कारण से असत्य वचन का त्याग करना । दूसरा संयम स्थान॥१२,१३॥ तृतीय स्थान अदत्त अग्रहण" ।
चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइवा बहं। दंत सोहणमित्तंपि, उग्गहंसि अजाइया॥१४॥ तं अप्पणा न गिण्हति, नो वि गिहावए परं।
अन्नं वा गह्रमाणपि, नाणुजाणंति संजया॥१५॥ मालिक से याचना किये बिना सचित्त या अचित्त, अल्प हो या अधिक दांत साफ करने की सली तक भी स्वयं ले नहीं दूसरों से मंगवाएं नहीं लेने वालों की अनुमोदना न करें।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ७०