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. सइकाले चरे भिक्खु, कुज्जा पुरिसकारि।
अलाभुत्ति न सोइज्जा, तवृत्ति अहिआसए॥६॥ अकाल में गोचरी जाने से दोषों की उत्पत्ति होती है अत: समय पर गोचरी जावें, स्वयं के पुरुषार्थ को प्रयोग में लें, फिर भी न मिले तो शोक न करें एवं चिंतन करें कि “आज तप में वृद्धि हुई इस प्रकार क्षुधा सहन करें॥६॥ "मार्ग में विशेष जयणा"
तहेवुच्चावया पाणा, भत्तट्ठाए समागया।
तं उज्जुअं न गच्छिज्जा, जयमेव . परक्कमे॥७॥ गोचरी के लिए जाते समय मार्ग में दाना चुगते हुए कबुतर आदि प्राणी दिखाई दें तो उनके सन्मुख न जाकर उनको दाना चुगना बंद नहीं करना पड़े इस प्रकार जयणा से चलें॥७॥ "धर्मकथा न करें"
गोअरग्गपविट्ठो अ न निसीइज्ज कत्थई।
कहं च न पबंधिज्जा, चिद्वित्ताण व संजए॥८॥ गोचरी के लिए गया हुआ साधु कहीं आसन लगा कर बैठे नहीं एवं न कहीं पर धर्मकथा कहे। ऐसा करने से अनेषणा एवं द्वेषादि का दोष होता हैं॥८॥ "खड़े कैसे रहना? .
अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वा वि संजए। अवलंबिआ न चिट्ठिज्जा, गोअरग्गगओ मुणी॥९॥ समणं माहणं. वा वि, किविणं वा वणीमगं। उवसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए॥१०॥ तमइक्कमित्तु न पविसे, न वि चिट्टे चक्खुगोअरे। एगतमवक्कमित्ता, तत्थ चिहिज्ज संजए॥११॥ वणीमगस्स के तस्स, दायगस्सुभयस्स वा।
अप्पत्तिअं सिआ हुज्जा, लहुत्तं पवयणस्स वा॥१२॥ गोचरी गये हुए साधु को गृहस्थ के घर के द्वार, शाख, अर्गला, फलक, दिवार आदि का सहारा लेकर खड़ा नहीं रहना। गृहस्थ को शंका हो जाने के कारण प्रवचन की लघुना, जीव विराधना आदि होने का संभव है।
श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, याचक इन चार में से कोई भी अर्थात् गृहस्थ के घर पर मांगनेवाला, याचना करनेवाला कोई भी खड़ा हो, अंदर जा रहा हो या आ रहा हो तो उसका उल्लंघन करके गृहस्थ के घर में न जाना एवं उन याचकादिम की दृष्टि में न आए ऐसे एकान्त स्थल में खड़े रहना। ऐसा न करे तो लेने-देने वाले दोनों को अप्रीति का कारण एवं जिनशासन की लघुता निंदादि का कारण होता है। (अगर वे मुनि को देख लें एवं वे कह दे महाराज आप पधारो एवं दाता भी बुलावे तो जाने में कोई दोष नहीं)॥९ से १२॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् /६१