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द्वितीय उद्देश्य
पडिग्णहं संलिहिताणं, लेव मायाए संजए।
दुगंधं वा सुगंधं वा, सव्वं भुंजे न छड्डए॥१॥ . साधु को आहार करते समय सुगंध युक्त, दुर्गंध युक्त जितना हो उतना आहार करना चाहिये उसमें से अंश मात्र त्याग न करें॥१॥ दूसरी बार गोचरी लेने कब जाय ?
सेज्जा निसीहियाए समावन्नो अ गोअरे। अयावयट्ठा भुच्चाणं, जई तेण न संथरे॥२॥ तओ कारणमुप्पण्णे, भत्तपाणं गवेसए।
विहिणा पुव्वउत्तेणं, इमेणं उत्तरेण य॥३॥ उपाश्रय या स्वाध्याय भूमि में रहे हुए या गोचरी गये हुए मुनिभगवंत को आहार करने से क्षुधा शांत न हुई हो उतने आहार से निर्वाह न हो रहा हो तो, पूर्व में दर्शाई हुई विधि से एवं आगे कही जानेवाली विधि से कारण उपस्थित होने से दूसरी बार आहारार्थ गोचरी जा सकता है। आहार पानी की गवेषणा करें॥२,३॥
मुनि भगवंत को मूल विधि अनुसार एक बार ही आहार पानी के लिए गोचरी जाने का विधान है। आहार की पूर्णता न हुई हो, क्षुधा वेदनीय की उपशांतता न हुई हो, स्वाध्यायादि योग में स्वस्थता, चित्त की एकाग्रता न रहती हो तो पुनश्च: गोचरी जाने का विधान दर्शाया है। ये विधान निर्दोष गोचरी की आवश्यकता को प्रगट कर रहे हैं। "गोचरी जाने का समय"
कालेण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे। अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे॥४॥ अकाले चरसि भिक्खू, कालं न पडिलेहसि।
अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि॥५॥ ग्रामानुग्राम विहार करने वाले मुनि को जिस ग्राम में जिस समय आहार की प्राप्ति सुलभ हो उस समय गोचरी के लिए जाना एवं स्वाध्याय करने के समय के पूर्व स्वस्थान में आ जाना। अकाल के समय को छोड़कर जिस समय जो कार्य करना है उस समय वही कार्य करना यही आचारांग सूत्र दर्शित मुनि का कालज्ञ विशेषण हैं॥ ४ ॥ ___ विपरित समय पर गोचरी जानेवाले को सूत्रकार श्री उपालंभ देते हुए कहते हैं कि - हे मुनि ! तूं गोचरी के समय को न देखकर अकाल में गोचरी जाता है, अधिक देर घूमना पड़ता है, आत्मा को किलामना होती है, चित्त चंचल बनता है, आहार की प्राप्ति न होने से ग्राम की, ग्राम निवासियों की निंदा करता है॥५॥ ___गोचरी के समय पर गोचरी न जाने से आत्म विटंबना होती है। "तपोवृद्धि
श्री दशवैकालिक सूत्रम् /६०