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वाउकाय की विराधना कर वहोराये तो साधु, कह दे कि यह आहार हमें नहीं कल्पता ॥ ५७से ६४ ॥
हुज कट्टं सिलं वा वि इट्टालं वा वि ओगया । तं च होज
ठविअं
संकमट्ठाओ
चलाचलं ॥ ६५ ॥
चातुर्मास में या अन्य दिनों में भी पानी भराव वाले स्थान पर चलने के लिए काष्ठ, पत्थर की शीला या ईट के टुकड़े आदि रक्खे हो, वे अस्थिर हो तो उस मार्ग पर साधु भगवंतो को चलना नहीं ॥ ६५ । कारण दर्शाते हुए कहा है कि :
न तेण भिक्खु गच्छिज्जा, गंभीरं झूसिरं चे व,
दिट्ठो तत्थ सबिंदिअ
असंजमो । समाहिओ ॥ ६६ ॥
ऊपर दर्शित मार्ग पर चलने से चारित्र विराधना होती है ऐसा जिनेश्वरों ने देखा है। और शब्दादि विषयों में समाधि युक्त मुनि को अंधकार में रहे हुए और अंदर पोकल (खोखला) ऐसे काष्ठ आदि पर भी नहीं चलना ॥ ६६ ॥
निस्सेणिं फलंगं पीढं उस्सवित्ताण- मारुहे।
मं चं कीलं च पासायं समणट्ठा अव दावओ ॥ ६७ ॥ दुरुह माणी पवडिज्जा, हत्थं पायं व लूसओ । पुढवि जीवे वि हिंसिज्जा, जे अ तन्निस्सिआ जगे ॥ ६८ ॥ अयारिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो । तुम्हा मालोहडं भिक्खं, न पडिगिण्हंति संजया ॥ ६९ ॥
साधु को दान देने हेतु दाता ऊपर चढने के लिए या ऊपर से पदार्थ लेने के लिए, नीसरणी, टेबल, पटीया, खूंटी आदि के सहारे से चढे और कभी गिर जाय हाथ, पैर टूट जाय, चोंट लग जाय उस स्थान पर रहे हुए पृथ्वीकायादि जीवों की विराधना होने का संभव होने से महापुरुष ऐसे महादोषों को बताकर मालापहृत आहार ग्रहण नहीं करते ॥ ६७ से ६९ ॥
आमगं
कंद मूलं पलंबं वा आमं छिन्नं तुंबागं सिंगबेरं च, तहे व सत्तु- चुण्णाई, कोल- चूण्णाई सक्कुलिं फालिअं पूअं, अन्नं वा वि विक्कायमाणं पसंद रणं दितिअं पडिआइक्खं, न मे कप्पइ बहुअट्ठिअं पुग्गलं, अणिमिसं वा अत्थियं तिंदुयं बिल्लं, उच्छुखंड व
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ५५
व सन्निरं ।
परिवज्जओ ॥ ७० ॥
आवणे । तहाविहं ॥ ७१ ॥ परिफासिअं ।
तारिसं ॥ ७२ ॥
बहुकंटयं । सिंवलिं ॥ ७३ ॥