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वृद्धि की गई हो ऐसा आहार, एवं वहोराने के लिए मांग कर लाया हो, अदलबदल कर लाया हो उधार लाया हो, साधु श्रावक दोनों के लिए मिश्ररुप में बनाया हो तो ऐसा आहार मुनि को छोड़ देना चाहिये। ग्रहण न करना॥५५॥
उग्गमं से अ पुच्छिज्जा, कस्सट्ठा केण वा-कडं। सुच्चा निस्सं किअं सुद्ध, पडिगाहिज संज्ज॥५६॥
आहार की निर्दोषता, सदोषता हेतु गृहस्थ से प्रश्न करे कि यह आहार किसके लिए और किसने बनाया है। उसका प्रत्युत्तर संतोषजनक हो एवं, निर्दोषता सिद्ध होती हो वह आहार ग्रहण करना। ५६।
असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा। पुप्फेसु हुज उम्मीसं, बीअसु हरिओसु व॥७॥ तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पिा दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पई तारिसं॥५८॥ असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा। उदगंमि हुज निक्खित्तं, उत्तिंग- पणगेसु वा॥५९॥ तं भवे भत्त- पाणं तु, संजयाण अकप्पिा दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥६॥ असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। तेउम्मि हज निक्खित्तं, तं च संघट्टिआ द॥१॥ तं भवे पत्त- पाणं तु संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥३२॥ ओ वं उस्सक्किआ ओसक्किआ उजालिआ पजालिआ निव्वाविआ। उस्सिंचिआ निस्सिंचिआ, उव्वत्तिआ ओयारिआ दो॥३॥
तं भवे भत्त पाणं तु, संजयाण अकप्पि।
दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥४॥ चारों प्रकार का आहार पुष्प-बीज आदि हरी वनस्पति से मिश्र हो, सचित्त जल पर हो, चिंटिओं के दर पर हो, अग्नि पर , एवं अग्नि से संघट्टित हो, अग्नि में काष्ठ डालते हुए, निकालते हुए एक बार या बार-बार ऐसा करते हुए, बुझाते हुए, एक बार या बार-बार काष्ट आदि चूल्हे में डालते हुए, अग्नि पर से कुछ अनाज निकालते हुए, पानी आदि का छिटकाव करते हुए, अग्नि पर रहे हुए आहारादि को अन्य पात्र में लेकर वहोराये या वही बर्तन नीचे लेकर वहोराये अर्थात् सचित्त जल, अग्नि, बस काय एवं वनस्पति की किसी भी प्रकार से विराधना करते हुए वहोराये अथवा उपलक्षण से पृथ्वीकाय एवं
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ५४