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में एगओ वा अकेले अथवा परिसागओ वा सभा में अथवा सुत्ते वा सोते हुए अथवा जागरमाणे जागते हुए वा दूसरी और भी कोई अवस्था में से अप्कायिक- जीवों की जयणा इस प्रकार करे कि उदगं वा वावडी, कुआ आदि के जल ओसं वा ओस का जल हिमं वा बर्फ का जल महियं वा धूंअर का जल करगं वा ओरा का जल हरितणुगं वा वनस्पति पर रहे हुए जल के कण सुद्धोदगं वा बारीश का जल उदउल्लं वा कार्य जल से भींजी हुई काया उदउल्लं वा वत्थं जल से भींजे हुए वस्त्र आदि ससणिद्धं वा कार्य जलबिन्दु रहित भींजी हुई काया ससद्धिं वा वत्थं जल बिन्दु रहित भींजे हुए वस्त्र आदि अप्काय को न आमुसेज्जा पूंछे नहीं न संफुसेज्जा छूए नहीं न आवीलिज्जा एक बार पीड़ा देवे नहीं न पविलिज्जा बार बार पीड़ा देवे नहीं न अक्खोडिज्जा एक बार झटके नहीं न पक्खोडिज्जा बार - बार झटके नहीं न आयाविज्जा एक बार तपावे नहीं न पयाविज्जा बार- बार तपावे नहीं अन्नं दूसरों के पास न आमुसाविज्जा पूंछावे नहीं न संफुसाविज्जा छुआवे नहीं न आवीलाविज्जा एक बार पीड़ा दिलवाऐं नहीं न पविलाविज्जा बार - बार पीड़ा दिलवाऐं नहीं न अक्खोडाविज्जा एक बार झटकवाऐं नहीं न पक्खोडाविज्जा बारबार झटकवाऐं नहीं न आयाविज्जा एक बार तपवाऐं नहीं न पयाविज्जा बार- बार तपवाऐं नहीं अन्नं दूसरों को आमुसंतं वा पूंछते हुए अथवा संफुसंतं वा छूते हुए अथवा आवीलं तं वा एक बार पीड़ा देते हुए अथवा पवीलंतं वा बार बार पीड़ा देते हुए अथवा अक्खोडतं वा एक बार झटकते हुए अथवा पक्खोडंतं वा बार • झटकते हुए अथवा आयावतं वा एक बार तपाते हुए अथवा पयावंतं वा बार- बार तपाते हुए न समणुजाणेज्जा अच्छा समझे नहीं ऐसा भगवान ने कहा, अतएव मैं जावज्जीवाए जीवन पर्यंत तिविहं कृत, कारित, अनुमोदित रूप अप्कायिक त्रिविध- हिंसा को मणेणं मन वायाए वचन कारणं काया रूप तिविहेणं तीन योग से न करेमि नहीं करूं न कारवेमि नहीं कराऊं करतं करते हुए अन्न पि दूसरों को भी न समणुजाणामि अच्छा नहीं समझं भंते! हे प्रभो ! तस्स भूतकाल में की गई हिंसा की पडिक्कमामि प्रतिक्रमण रूप आलोयणा करूं निंदामि आत्म- साक्षी से निंदा करूं गरिहामि गुरु- साक्षी से गर्हा करूं अप्पाणं अप्काय की हिंसा करनेवाली आत्मा का वोसिरामि त्याग करूं ।
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काय की रक्षा
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते जागरमाणे वा से अगणिं वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अच्चिं वा जालं वा अलायं वा सुद्धागणिं वा उक्कं वा न उंजिज्जा न घट्टेजा न भिंदेज्जा न उज्जालेज्जा न पज्जालेज्जा न निव्वावेज्जा; अन्नं न उंजावेज्जा न घट्टावेजा न भिंदावेज्जा न उज्जालावेज्जा न पज्जालावेज्जा न निव्वावविज्जा; अन्नं उजंतंपवि घट्टतं वा भिदंतं वा उज्जालंतं वा पज्जालंतं वा निव्वावंतं वा न समणुजाणेज्जा । जावज्जीवाए
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ३०