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करे, दूसरों से आचरण न करावे और आचरण करनेवाले दूसरों को भी अच्छा नहीं समझे । इस प्रकार रात्रिभोजन विरमण सहित पांच महाव्रतों को आत्म- कल्याण के वास्ते अंगीकार करके संयम धर्म में विचरे । ऐसा सुधर्मस्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा ।
जम्बूस्वामी प्रतिज्ञा करते हैं कि हे भगवन् ! जिनेश्वरों की आज्ञा के अनुसार मैं रात्रिभोजन सहित पांचों आश्रवों का, तीन करण, तीन योग से त्याग करता हूं और भूतकाल में आचरण किये गये आश्रवों की आलोयणा रूप आत्मसाक्षी से निंदा तथा गुरुसाक्षी से गर्हा और आश्रवसेवी आत्मा का त्याग करता हूं। इस प्रकार रात्रिभोजन विरमण व्रत सहित पांच महाव्रतों को भले प्रकार स्वीकार करके सयंमधर्म में विचरता हूं ।
इसी तरह प्रतिज्ञा और रात्रिभोजनविरमणव्रत - सहित पांचों महाव्रत जिनका स्वरूप ऊपर दिखाया गया है उसे अंगीकार करके दूसरे साधु साध्वियों को भी संयमधर्म में सावधानी से विचरना चाहिये |
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" जीवों की जयणा रखने का उपदेश -'
पृथ्वीकाय की रक्षा :
भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा; से पुढविं वा भित्तिं वा सिलं वा लेलुं वा ससरक्खं वा कार्य ससरक्खं वा वत्थं हत्थेण वा पाएण वा कट्टेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा न आलिहिज्जा न विलिहिज्जा न घट्टिज्जा न भिंदिज्जा; अन्नं न आलिहावेज्जा न विलिहावेज्जा न घट्टाविज्जा न भिंदाविज्जा, अन्नं आलिहंतं वा विलिर्हतं वा घट्टतं वा भिदंतं वा न समणुजाणामि । जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेम करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।
धारक
शब्दार्थ :- से पूर्वोक्त पंचमहाव्रतों के संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे संयम युक्त, विविध तपस्याओं में लगे हुए और प्रत्याख्यान से पापकर्मों को नष्ट करनेवाले भिक्खू वा साधु अथवा भिक्खुणी का साध्वी दिआ वा दिवस में, अथवा राओ वा रात्रि में, अथवा एगओ वा अकेले, अथवा परिसागओ वा सभा में, अथवा सुत्ते वा सोते हुए, अथवा जागरमाणे जागते हुए वा और भी कोई अवस्था में से पृथ्वीकायिक जीवों की जयणा इस प्रकार करे कि पुढविं वा' खान की मिट्टी भित्तिं वा नदीतट की मिट्टी सिलं वा बड़ा पाषाण लेलुं वा पाषाण के टुकड़े ससरक्खं वा कार्यं सचित्त रज से युक्त शरीर ससरक्खं वा वत्थं सचित्त रज से युक्त वस्त्र
१. वा शब्द से खान आदिमें तज्जातीय भेदों को भी ग्रहण करना । इसी तरह आगे के आलावाओं में भी अपकाय हेणस्काय, वायु और वनस्पतिकाय के तज्जातीय भेदों को भी ग्रहण करना ।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / २८