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________________ "उपसंहार" सुच्चाण मेहावि-सुभासियाई, सुस्सूसए आयरिअप्पमत्तो। आराहईत्ताण गुणे अणेगे, से पावइ सिद्धिमणुत्तरं।त्ति बेमि॥१७॥ इन सुभाषितों को श्रवण कर मेधावी मुनि, सद्गुरु आचार्य भगवंत की सतत्, निरंतर अप्रमत्त भाव से सेवा करें। इस प्रकार पूर्वोक्त गुण युक्त सद्गुरु आचार्यादि की शुश्रुषा करने वाला मुनि अनेक ज्ञानादि गुणों की आराधना कर क्रमश: मोक्ष प्राप्त करता है।१७। - श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी कहते है कि तीर्थंकरादि के कहे अनुसार मैं कहता हूँ। द्वितीय उद्देश्य "मूल की महत्ता" मूलाउ खन्धप्यभवो दुमस्स, खन्धाउ पच्छा समुवेन्ति साहा। साहाप्पसाहा विरुहन्ति पत्ता, तओ से पुष्कं च फलं रसो य॥१॥ वृक्ष के मूल से स्कंध उत्पन्न होता है, स्कंध के बाद शाखा की उत्पत्ति, शाखा से छोटी शाखा प्रशाखाएं निकलती है फिर पत्र, पुष्प, फल एवं रस की उत्पत्ति होती है।१। एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो । जेण किति सुअं सिग्धं, नीसेसं चाभिगच्छइ॥२॥ इस प्रकार धर्म रुप कल्पवृक्ष का मूल विनय है। वृक्ष सदृश्य उत्तरोत्तर सुख सामग्री, ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति के साथ मोक्ष प्राप्ति, यह उत्तम फल के स्स रुप जानना।अत: विनयाचार का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य है। विनय से मुनि कीर्ति, श्रुतज्ञान एवं प्रशंसा योग्य सभी पदार्थों को प्राप्त करता है।२। "अविनीत की दुर्दशा" . जे व चण्डे मिए बहे, दुव्वाई नियडी सढे। बुझाई से अविणीयप्पा, कहुं सोयगयं जहा॥३॥ तीव्र रोप युक्त, अज्ञ, हितोपदेश से रुष्ट होनेवाला, अहंकारी, अप्रियभाषी, मायावी, शठ, (संयम योगों में शिथिल) इत्यादि दोषों के कारण जो मुनि सद्गुरु आदि का विनय नहीं करता, वह अविनीत आत्मा जिस प्रकार नदी आदि के प्रवाह में गिरा हुआ काष्ठ बहता रहता है वैसे संसार प्रवाह में वह प्रवाहित होता है। अर्थात् अविनीतात्मा चारों गति में परिभ्रमण करता रहता है।३। विणयं पि जो उवाएणं, चोई ओ कुप्पई नरो। दिव्वं सो - सिरिमिज्जन्ति, दंडेण पडिसेहए॥४॥ विनय धर्म के परिपालन हेतु सद्गुरु के द्वारा प्रयत्नपूर्वक मधुर वचनों से प्रेरित करने पर उन पर कुपित आत्मा, अपने घर में आनेवाली ज्ञान रुप दिव्य लक्ष्मी को दंड प्रहार से लौटा देता है। उसे धक्का श्री दशवकालिक सूत्रम् / १०९
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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