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________________ आने पर कीचक (बांस) का नाश होता है। अविनय रुप फल प्राप्ति से उसके भाव प्राणों का नाश हो जाता है। जे आवि मंदित्ति, गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुअसत्ति नच्चा। हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा, करति आसायण ते गुरूणं॥२॥ जो मुनि, सद्गुरू को ये अल्पप्रज्ञ (मंदबुद्धि) वाले हैं, अल्पवयवाले हैं, अल्पश्रुतधर हैं, ऐसा मानकर उनकी हीलना/तिरस्कार करता है, वह मुनि मिथ्यात्व को प्राप्त करता हुआ, गुरू भगवंतों की आशातना करने वाला होता है। अल्पप्रज्ञ सद्गुरू का विनय न करने का फल" पगईई मंदा वि भवंति एगे, डहरा वि अ जे सुअबुद्धोववेआ। आयारमंता गुणसुविअप्पा, जे हीलिआ सिहिरिव भास कुजा॥३॥ वयोवृद्ध आचार्य भगवंत भी कभी कोई प्रकृति से अल्पप्रज्ञ होते हैं एवं कोई अल्पवय युक्त होने पर भी श्रुत एवं बुद्धि से प्रज्ञ होते हैं। ____ आचारवंत एवं गुण में सुस्थित आत्मा आचार्य भगवंत जो आयु में अल्प हो, श्रुत में अल्प हो, तो भी उनकी अवज्ञा करनेवाले आत्मा के गुणों के समुह का नाश हो जाता है। जैसे अग्नि में पदार्थ भस्म होता है। अर्थात् सद्गुरू की आशातना करने वाले के गुण समूह का नाश अग्नि में पदार्थ के नाश सम हो जाता है।३। 'वृष्टांत पूर्वक अविनय का फल" जे आवि नागं डहरं ति नच्चा, आसायए से अहिआय होइ। एवायरिअं . पि हु हीलयंतो, निअच्छई जाइपहं खु मंदो॥४॥ . जैसे कोई मुर्ख अज्ञ आत्मा सर्प को छोटा समझकर उसकी कदर्थना करता है, तो वह सर्प उसके द्रव्य प्राण के नाश का कारण बनता है, वैसे शास्त्रोक्त किसी कारण से अल्पवयस्क, अल्प प्रज्ञ को आचार्य पद दिया गया हो एवं उनकी हिलना करनेवाला आत्मा "जाइ पह" अर्थात् दो इन्द्रियादि गतियों में अधिक काल के जन्म मरण के मार्ग को प्राप्त करता है। अधिक काल तक संसार में परिभ्रमण रुप अहित को प्राप्त करता है।४। आसी विसो वा वि परं सुरूवो, किं जीवनासाउ परं न कुज्जा। आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहि-आसायण नथि मुक्खो॥५॥ आशीविष सर्प अत्यन्त क्रोधित बनने पर जीवितव्य द्रव्य प्राणों के नाश से अधिक किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं कर सकता। पर सद्गुरु आचार्य भगवंत, उनकी हिलना से, अप्रसन्न होने से शिष्य के लिए वे मिथ्यात्व के कारण रुप होते हैं। क्योंकि सद्गुरु आचार्य की अवहेलना-आशातना करने से मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है। इस से अबोधि एवं आशातना करने वालों का मोक्ष नहीं होता।५। श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १०६
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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