SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिक गुणी को नमस्कार करता हुआ, ओवायवं वंदन करने वाला, वक्ककरो आज्ञा मानने वाला । ३ । अन्नायउंछं अज्ञात घरों से, जवणट्ठया निर्वाह अर्थे, समुयाणं योग्य आहार, परिदेव अज्जा निंदा करना । ४ । पाहन्न प्रधान | ५ । सक्का शक्य, सहेउं सहने हेतु, आसाइ आशा से, अओमया लोहमय, उच्छहया उत्साह से, वड़मओ कठोर, परुषवचन, कण्णसरे कान में प्रवेश करते ऐसे । ६ । सुउद्धरा सुखपूर्वक निकाले जा सके। ७। समावयन्ता सामने आते हुए, जणन्ति उत्पन्न करते हैं, किच्चा जानकर, परमम्णसूरे महाशूरवीर । ८ । परम्मुहस्स पीछे, पडिणीयं दुःखद, ओहारिणिं निश्चय रुप । ९ । अक्कूहओ इन्द्रजालादि क्रिया से दूर, भावियप्पा स्व प्रशंसक । १० । अणुहिंसाहू • गुणों से असाधु, अप्प आत्मा को । ११ । हीलओ एक बार निंदा करे खिंसओज्ज़ा बार-बार निंद करे | १२ | मणिया सन्मानित, कन्नं व कन्या के जैसे, उसेण-जत्तेण यत्न से, माणरिहे मान देने योग्य | १३ | चरे आदरे, पाले, स्वीकार करे । १४ । पडियरिय सेवाकर धुणिय खपाकर, अभिगमकुसले मेहमान मुनियों की वैयावच्च में कुशल, भासुरं देदीप्यमान, वइ जाता है । १५ । "चतुर्थ उद्देश्य" अभिरामयन्ति जोड़ता है । २ । अणुसासिज्जन्तो अनुशासित, वेयमाराहइ श्रुत ज्ञान की आराधना करे, अत्तसम्पम्गहिए आत्म प्रशंसक, एत्थ यह । ३ । पेहेड़ प्रार्थना करे, आययट्ठिओ मोक्षार्थि साधु । ४ । अज्झायव्वं पठन योग्य । ५ । आरहन्तेहिं हेउहिं अरिहन्त कथित हेतु । ८ । भाव सन्धओ आत्मा को मोक्ष के पास ले जाने वाला । १० । अभिगम जानकर, विउलहिअं महान हितकारी । ११ । इत्थंत्थं नरकादि व्यवहार के बीजरूप वर्ण संस्थानादि । १२ । विनय समाधि नामक नवम अध्ययन "संबंध" आठवें अध्ययन में आचार साध्वाचार का वर्णन किया, प्ररूपणा की। आचार पालन में विनय गुण का मुख्य, प्रधान स्थान है। विनयहीन आत्मा का आचार पालन, बिना जड़ के वृक्ष जैसा है। आगमों में मूल शब्द का प्रयोग विनयधर्म के साथ ही हुआ है। "विणय मूलो धम्मो” धर्म का मूल विनय है। धर्म के मूल स्वरुप विनय की व्याख्या नवमें अध्याय में दर्शायी है। विनयी आत्मा ही आचार पालन के द्वारा जगत विश्व में पूजनीय होता है। अतः श्रीज्ञयंभवसूरीश्वरजी म. सा. ने नौवे अध्याय में विनय का स्वरूप दर्शाया है। "प्रथम उद्देश्य" " अविनयी को फल प्राप्ति" धंभा व कोहाव मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विजयं न सिक्खे || सो चेव उ तस्स अभूईभावो, फलं व कीअस्स वहाय होई ॥ १ ॥ जो मुनि गर्व, क्रोध, माया एवं प्रमाद के कारण सद्गुरु भगवंत से विनय धर्म की शिक्षा ग्रहण हीं करता, वही (विनय की अशिक्षा) उसके लिए विनाश का कारण बनती है। जैसे कीचक को फल श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १०५
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy