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कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणय-नासणो।
माया मित्ताणि नासेई, लोभो सव्व-विणासणो॥३८॥ क्रोध प्रीति नाशक, मान विनय नाशक, माया मित्रता नाशक एवं लोभ सर्व विनाशक है।३८ । "कषाय निरोध हेतु मार्गदर्शन"
उवसमेण हणे कोह, माणं महवया जिणे।
मायं चज्ज भावेण, लोभं संतोसओ जिणे॥३९॥ उपशम भाव से क्रोध का नाश करे, मृदुता/कोमलता/नम्रता से मान का नाश करें, ऋजुभाव/सरलता से माया का नाश करें एवं संतोष/निर्लोभता/निस्पृहता से लोभ का विनाश करें। ३९ । "कषायों के कार्य"
कोहो अ माणो अ अणिग्गहीआ, माया अलोभो अ पवढमाणा। चत्तारि ए ए कसिणा कसाया, सिंचन्ति मूलाई पुणब्भवस्स ॥४॥
अनिगृहीत/अंकुश में न रखे हुए वश नहीं किये हुए क्रोध, मान एवं प्रवर्द्धमान माया एवं लोभ ये चारों संपूर्ण या क्लिष्ट कषाय पुनर्जन्म रुप वृक्ष के तथाविद कर्मरूप जड़ को अशुभ भावरुप जल से सिंचन करते हैं। "विविध नियमों से साध्वाचार पालन"
रायणिएसु विणयं पउंजे, धुवसीलयं सययं न हावईज्जा। कुम्मुव्व - अल्लीण-पलीण-गुत्तो, परक्कमिज्जा तव-संजमंमि॥४१॥ । मुनि, आचार्य, उपाध्याय, व्रतादि पर्याय में ज्येष्ठ साधुओं का अभ्युत्थानादिक रुप से विनय करें, ध्रुवशीलता (अठारह हजार शीलांग रथ में हानि का न होना) में स्खलना न होने दे, कर्म की तरह स्व अंगो पांगो को कायचेष्टा निरोध रुप आलीन, गुप्तिपूर्वक तप एवं संयम में प्रवृत्त बनें। ४१।
निदं च न बह मन्निज्जा, सप्पहासं विवज्जए।
मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायमि रओ सया॥४२॥ मुनि निद्रा को बहुमान न दे, किसी की हंसी-मजाक न करें या अट्टहास न करें, मैथुन की कथा में रमण न करें अथवा मुनि, मुनि से विकथा न करें, परंतु निरंतर स्वाध्याय में आसक्त रहे। स्वाध्याय ध्यान में रमण करें।४२।
जोगं च समणधम्ममि, मुंजे अणलसो धुवं।
जुत्तो अ समणधम्ममि, अहूं लहइ अणुत्तरं॥४३॥ मुनि अप्रमत्तता पूर्वक स्वयं के तीनों योगों को श्रमण धर्म में नियोजित करें। क्योंकि दस प्रकार
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ९९