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मुनि राग-द्वेष के कारण जान अनजान में मूल-उत्तर गुण की विराधना कर ले तो उस परिणाम से शीघ्र दूर होकर आलोयणादि ग्रहण कर दूसरी बार ऐसा न करें।३१। . ..
अणायारं परक्कम्म, नेव गुहे न निन्हवे।
सूई सया वियडभावे, असंसत्ते जिइंदिए॥३२॥ निरंतर पवित्र बुद्धिवाले, प्रगट भाव वाले, अप्रतिबद्ध, और जितेन्द्रिय मुनि पूर्व के अशुभ कर्म के उदय से अनाचार सेवन कर ले तो अति शीघ्र गुरु के पास आलोचना लेवे उसको छुपावे नहीं और मैंने नहीं किया ऐसा अपलाप भी न करें।३२।
अमोहं वयणं कुज्जा, आयरिअस्स महप्पणो।
तं परिगिझ वायाए, कम्मुणा उववायए॥३३॥ मुनि को महात्मा, आचार्य भगवंत के वचन आज्ञा को सत्य करना चाहिये। आचार्य भगवंत के वचन को मन से स्वीकार कर क्रिया द्वारा उस को पूर्ण करना चाहिये।३३।
अधुवं जीविअं नच्चा, सिद्धिमग्णं विआणिआ। .
विणिआट्टिज भोगेसु, आउं परिमिअमप्पणो॥३४॥ मुनि इस जीवन को अनित्य जानकर, स्वयं के आयुष्य को परिमित समझकर, ज्ञान-दर्शन चारित्र रुप मोक्ष मार्ग को निरंतर सुखरुप मानकर विचारकर बंधन के हेतुभूत विषयों से पीछे रहे। ३४।
बलं थामं च पेहाए, सद्धा मारुग्ग-मप्पणो। खितं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजुंजए॥३५॥ जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वाइ।
जाविंदिया न हायंति, ताव धर्म समायरे॥३६॥ मुनि स्वयं की शक्ति, मानसिक बल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा और निरोगीता देखकर क्षेत्र काल जानकर उस अनुसार अपनी आत्मा को धर्म कार्य में प्रवर्तावे। ३५।
जब तक वृद्धावस्था पीड़ित न करें, व्याधि न बढ़े और इंद्रियों क्षीण न हो वहां तक शक्ति को बिना छुपाये धर्माचरण करें। ३६।
कोहं माणं च, मायं च, लोभं च पाव-वहणं।
चमे चत्तारी दोसे उ, ईच्छंतो हिअमप्पणो॥३७॥ क्रोध, मान, माया एवं लोभ ये चारों पापवर्द्धक भववर्द्धक है। मुनि अपना हित चाहने वाला है। अत: इन चार दोषों को छोड़े। कषाय सेवन न करें। "कषाय से होने वाला अलाभ"
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ९८