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________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययन २०) ८१ तमं तमेणेव उ से असीले, सया दुही विपरियामुवेइ । संघावई नरगतिरिक्खजोणि, माणं विराहेत्तु असाहुरूवे ॥४६॥ उद्देसियं कीयगड नियागं, न मुचई किच अणेसणिज । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता, इत्तो चुए गच्छइ कठ्ठ पावं ॥ ४७ ॥ न तं अरी के ठछेत्ता करेइ, ज से करे अप्पणिया दुरप्पया । से नाहई मच्चुमुह तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥ ४८ ॥ निरट्ठिया नग्गरुई उ तस्स, जे उत्तम8 विवज्जासमेइ । इमे वि से नत्थि परे वि लाए, दुहओ वि से झिजइ तत्थ लाए ॥ ४९ ।। एमेव हा छंदकुसीलरूवे, मग्गं विराहेत्तु जिणुत्तमाण । कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा, निरटुसाया परियावमेइ ।। ५० ॥ सोच्चाण मेहावि सुभासियं इमं, अणुसासण नाणगुणाववेयं । मग कुसीलाण जहाय सव्व', महानियंठाण वए पहेण ॥५१॥ चरित्तमायारगुणन्निए तओ, अणुत्तर संजम पालियाण । निरासवे संखवियाण कम्म. उवेइ ठाण विउलुत्तमं धुवं ।। ५२ ॥ एवुग्गदते वि महातवाधणे, महामुणी महापइन्ने महायसे । महानियंठिजमिण महासुर्य, से कहेई महया वित्थरेण ॥५३॥ तुट्ठो य सेणिआ राया, इणमुदाहु कयंजली । अणाहत्तं जहाभूय, सुटु मे उवद सियं ॥ ५४ ।। तुझ सुलद्धं खु मणुस्सजम्म, लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी।
SR No.022569
Book TitleUttaradhyayan Sutra Mul Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
PublisherPurushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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