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________________ ५२ उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययनं १५) राआवरय चरेज लाढे, विरए वेयवियायरक्खिए । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी जे कम्हि वि न मुच्छिए स भिक्खू ॥२॥ अक्कोसवह विइत्तु धीरे, मुणी चरे लाढे निश्चमायगुत्ते । अध्यागमणे अस पहिडे, ने कसिण अहियासए स भिक्खू ।।३।। पस सेयणासण भइत्ता, सीउण्ह विविहं च दंसमसगं । अव्वगोमणे असंपहिढे, जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ।।४।। ना सवइमिच्छई न पूय', नो य वंदणग कुओ पसस । से बना सूचए तबस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू ॥५॥ जेण पुण जहाइ जीविय, माह वा कसिण नियच्छई। नरनारि पज़हे सया तवस्सी, न य काऊहल उवेइ स भिक्खू ॥६॥ छिन्नं सर भाममंतलिक्ख, सुमिण लक्खणदंडवत्थुविज्ज । अगर्वियार सरस्स विजय, जे विज्जाहि न जीवइ स भिक्खू ॥७॥ मंतं मूल विविह वेज्जचिंत', वमणविरेयणधूमणेत्तसिणाण । आउरे सरणं तिगिच्छियौं च, त परिन्नाय परिव्वए स भिक्ख ॥८॥ खत्तियगणउग्गरायपुत्ता, माहणभाइय विविहा य सिप्पिणा । ना तेसिं वयइ सिलेागपूय, त परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥९॥ गिहिणा जे पव्वइएण दिठ्ठा, अप्पवइएण व संथुग हविज्जा । तेसिं इहलाइयफलट्ठा, जो सथव न करेइ स भिक्ख ॥१०॥
SR No.022569
Book TitleUttaradhyayan Sutra Mul Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
PublisherPurushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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