________________
उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययनं १५) ५३ सयणासणपाणभायणं, विविहीं खाइमसाइम परेसिं । अदए पडिसेहिए नियंठे, जे तत्थ न पउम्सई स भिक्खू ॥११॥ ज' किंचि आहारपाणजाय विविह', खाइमसाइम परेसिं लध्धु। जो त तिविहेण नाणुक पे, मणवयकायसुस वुडे स भिक्खू
॥१२॥ आयामगं चेव जवोदणं च, सीय सेोवीरच जवादगं च । न हीलए पिंड नीरसतु, पंतकुलाई परिव्वए स भिक्खू ।।१३।। सद्दा विविहा भवंति लाए, दिव्वा माणुस्सगा तिरिच्छो । भीमा भयभेरवा उराला, जो सोच्चा न विहिज्जई स भिक्खू
॥१४॥ वाद विविह समिच्च लाए, सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, उवसंते अविहेडए स भिक्खू ।।१५।। असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइदिए सव्वओ विप्पमुक्को । अणुक्कसाई लहुअप्पभक्खी, चिच्चा गिह एगचरे स भिक्खू
॥१६॥ त्ति बेमि ।। इति सभिक्खू णाम पंचदह अज्झयणं समत्त ।।
॥ अह बंमचेरसमाहिठाणा सोलसम अज्झयण ।।
सुयं मे आउस तेण भगवया एवमक्खाय । इह खलु थेरेहि भगवंतेहिं दस बभचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता, जे भिक्खू सेोच्चा निसम्म संजमबहुले सवरबहुले समाहि