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.उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययनं. ११)
॥ अह बहुस्सुयं एगारसं अज्झयणं ।। . . संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो । आयारं पाउकरिस्सामि, आणुपुविसुणेह मे ॥ १ ॥ जे यावि होइ निविज्जे, थद्धे लुद्ध अणिग्गहे। अभिक्खणं उल्लवई, अविणीए अबहुस्सुए ॥ २ ॥ अह पंचहि ठाणेहि, जेहिं सिक्खा न लब्भई । थंभा माहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण य ॥ ३ ॥ अह अट्टहि ठाणेहि, सिक्खासीले त्ति वुच्चई । अहस्सिरे सया दंते, न य मम्ममुद्राहरे ॥ ४ ॥ नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वुच्चई ॥ ५ ॥ अह चउद्दसहि ठाणेहि , वट्टमाणे उ संजए । . . . . अविणीए वुच्चई सो उ, निव्वाणं च न गच्छइ ॥ ६ ॥ अभिक्खणं कोही हवइ, पबंध च पकुव्वइ । मेत्तिजमाणो वमइ, सुयं लभ्रूण मज्जइइ ॥ ७ ॥ .. अवि पावपरिक्खेची, अवि मित्तेसु कुप्प । सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासइ पावयं ॥ ८ ॥ पइन्नवाई दुहिले, थद्धे लुद्धे अनिग्गहे। असंविभागी अवियत्ते, अविणीए त्ति वुचई ॥ ९ ॥ अह पन्नरसहि ठाणेहिं, सुविणीए त्ति वुच्चई । नीयावत्ती अचवले, अमाई अकुऊहले ॥ १० ॥