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. उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययन ६)
बहिया उइढामादाय, नाऽवकंखे कयाइ षि । पुवकम्मक्खयढाए, इमं देहं समुद्धरे ॥१४॥ . विविच्च कम्मुणो हेउ, कालकंखी परिव्वए । मायं पिंडस्स पाणस्स, कड लद्धण भक्खए ॥१५॥ सन्निहि च न कुव्विज्जा, लेवमायाए संजए । पक्खीपत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्वए ॥१६॥ एसणासमिओ लज्जू, गामे अणियओ चरे । अप्पमत्तो पमत्तेहिं, पिंडवायं गवेसए ॥१७॥ एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदसी अणुत्तरनाणदसण धरे अरहा नायपुत्ते, भगवं वेसालिए बियाहिए त्ति बेमि ॥१८॥ इति खुड्डागनियंठिज्जणाम छठ्ठ अज्मयणं समत्तं ॥६॥
॥ अह एलयं सत्तम अज्झयणं । जहाऽएस समुहिस्स, कोइ पोसेज्ज एलयं ।
औरण जवस देजा, पासेज्जा वि सयंगणे ॥१॥ तओ से पुढे परिवूढे, जायमेए महोदरे । पीणिए विउले देहे, आएस परिकंखए ॥२॥ जाव न एइ आएसे, ताव जीवइ सो दुही । अह पत्तमि आएसे, सीसं छेत्तूण भुज्जइ ॥३॥ जहा से खलु उरब्भे, आएसाए समीहिए । एवं बाले अहम्मिटे, ईहई नरयाउय ॥४॥