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उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययन ३२)
अतुट्ठिदासेण दुही परस्स, लाभाविले आययई अदत्त || १४ || तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, भावे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुस बड्इ लाभदासा,
,
तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ।। ९५ ।। मोसस्स पच्छाय पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरते । एवं अदत्ताणि समाययता, भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्सा || भावापुरत्तस्स नरस्स एव कत्तो सुह होज कयाइ किंचि । तत्थवभागे वि किलेसदुक्ख, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्ख ॥। एमेव भावम्मि गओ पओस, उवेइ दुक्खाहपर पराओ । चित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणेो होइ दुह विवागे || भावे विरतो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पए भवमज्झे वि संतो,
जलेण वा पोक्लरिणीपलास ।। ९९ ॥ एविंदियत्थाय मणस्स अत्था, दुक्खरस हेऊ मणुयस्स रागिणा । ते चैव धावं पि कयाइ दुक्ख',
न वीयरागस्स करेति किंचि ॥ १०० ॥
न कामभोगा समय' उवेति, न यावि भोगा विगई उवेति । जे तप्पओसी य परिग्गही य, सेो तेसु मोहा विगई उवेइ || कोह च माणं च तव मायं, लोह दुगुच्छ अरई रई । हासं भयं सोगपुमित्थवेयं, नपुं सवेय विविहे य भावे ॥ १०२ ॥ आवज़ाई एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो । अन्य एयप्पभवे विसेसे, कारुण्णदीणे हरिमे वइस्से || १०३ ||