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उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययनं ३२) १४५ फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्योवभागे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्ख ८४। एमेव फासम्मि गओ पओस, उवेइ दुक्खाहपर पराओ । पदुदृचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुह विवागे । फासे विरत्तो मणुओ विसेोगो, एएण दुक्खाहपर परेण । न लिप्पए भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलास।।८६।। मणस्स भावं गहण वय ति, त रागहेतु मणुन्नमाहु । त दोसहेउ अमणुन्नमाहु, समा य जो तेसु स वीयरागो ॥८॥ भाबस्स मणं गहणं वयति, मणस्स भावं गहणं वयति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउ अमणुन्नमाहु ॥८८॥ भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिय पावइ से विणासं । रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे, करेणुमग्गावहिए गजे वा ॥८९॥ जे याविदोस समुवेइ निव्व, तसि क्खणे से उ उवेइ दुक्ख । दुइंतदासेण सएण जंतू , न किंचि भावं अवरुज्झई से ॥९०।। एगतरत्ते रुइरसि भावे, अतालिसे से कुणई पओस । दुक्खस्स सपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो । भावाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तद्वगुरू किलिटे ॥९२॥' भावणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे य कह सुह से. सभोगकाले य अतित्तलाभे ॥ भावे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुद्धि ।
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