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________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययन ३२) १४५ जे यावि दोस समुवेइ तिव्वं, तसि खणे से र उवेह दुक्ख । दुदंतदासेण सएण जतू , न किंचि रस अवरुज्झई से ॥ एगतरत्ते रुइरंसि रसे, अतालिसे से कुणई पओस । दुक्खस्स स पीलमुवेइ वाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ।। रसाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ वाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिडे ।।६६।। रसाणुबाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसनिओगे । वए विओगे य कह सुह से, सभोगकाले य अतित्तलाभे ॥ ६७ ॥ रसे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न वेइ तुर्द्धि । अतुट्ठिदासेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्त ॥६८।। तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणा, रसे भतित्तस्म परिग्गहे य । मायामुसं वढइ लाभदासा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ६९ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य; पओगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ७० ॥ रसाणुरत्तम्स नरस्स एवं, कत्तो सुह होज कयाइ किंचि । तत्थोवभागे वि किलेसदुक्खं, मिब्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ एमेव रसम्मि गओ पओस, उवेइ दुक्खाहपरंपराओ । पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्म, नसे पुणो होई दुई विवागे । रसे विरत्तो मणुओ विसोगा, एएण दुक्खाहपरंपरेण ।
SR No.022569
Book TitleUttaradhyayan Sutra Mul Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
PublisherPurushudaniya Parshwanath SMP Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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